उम्मीद करती हूँ मेरी पहली कहानी आपको पसंद आई होगी। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरे पति एक सेक्रेटरी और टाइपिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं लेकिन मैं इसका अहसान क्यों मानूं ? आखिर मैं भी तो पिछले 47 वर्ष से यही करती आ रही हूँ। लेकिन Editing और Proof reading के लिए मैं उनको धन्यवाद देती हूँ।
इस बार की कहानी भी बिराटनगर में हमारे प्रवास की ही है जहां माँ, बाबूजी, मै और मेरे 2 छोटे भाई बिमल और किशोर एक किराये के मकान मे रह रहे थे। जैसा मै पिछली बार बता चुकी हूँ दो तल्ला मकान में एक लम्बा और चैाड़ा बरामदा था उससे लगे कुछ कमरे थे जिसमें कई किरायेदार रहते थे। चारों ओर थेथर और अन्य कंटीली झाड़ियाँ थी। उपर के तल्ले में भी एक कप्तान साहब अपनी पत्नी के साथ रहते थे। हर रात दिन भर के खर्च का हिसाब करते होंगें क्योंकि हम हर रात चिरपरिचित नेपाली सम्बोधन अवश्य ही सुनते थे "सुन्नु भौ दश पैसा को हिसाब मिलेन" (सुनते हो दस पैसा का हिसाब नहीं मिल रहा)।जिस दिन यह सुनने को नहीं मिलता तो सुबह वह चर्चा का विषय हो जाता।
अब मै असली वाकये पर आती हूँ। हम सभी बच्चे बरामदे में ही खेला करते। बरामदा ऊँचा था। हम कूदकर नीचे चले तो जाते पर चढ़ने के लिए मदद की जरूरत पड़ती थी। सीढ़ियां झाड़ियों के तरफ थी जिधर सांप होने का खतरा रहता था। मकान मालकिन अपने दूसरे पति के साथ बगल के दूसरे मकान में रहती थी। मकान उसके स्व० पहले पति का था। पहले पति से उसे एक बेटा था और दूसरे पति से एक बेटी थी। बेटे का नाम था लंगड़ू । अच्छा नाम भी होगा पर उसकी माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी। हम भी लंगड़ूू ही कहते। वैसे वह लंगड़ा तो बिल्कुल नहीं था। मुझसे एकाध साल बड़ा होगा। दुबला पतला और लम्बा। हमेशा अपने साईज से बड़ा बुश्शर्ट पहने रहता। ढ़ीला ढ़ाला निकर। शर्ट आधी बाहर आधी अन्दर। शर्ट के बटन भी एक दो टूटे रहते। बाल बिखरे कभी बहुत बड़े तो कभी एकदम छोटे छंटे हुए लगभग मुंड़े हुए। सभी बच्चों में सबसे बेतरतीब। उसकी छोटी बहन लगभग तीन वर्ष की थी। उससे बिल्कुल अलग। हर समय सजी सुन्दर फ्रॉक पहने, बालों में रिबन से बंधी दो चोटियाँ। आँखों में काजल और पैरों में जूते या चप्पल भी जबकी लंगड़ू को हमने हमेशा नंगे पैर ही देखा था। यह वाकया उन्हीं भाई बहनों से सम्बंधित है। उनके पास एक तीन पहियों वाली साईकिल थी । साईकिल पर बहन को बैठा कर लंगड़ू ठेलते हुए बारामदे के कई चक्कर लगाता था। साईकिल पर बैठने के लिए बच्चे कई प्रकार के उपहार से लंगड़ू को मनाने की चेष्टा करते। लेमनचूस से लेकर बॉल तक देने को तैय्यार रहते पर मज़ाल है जो वह किसीको साईकिल पर बैठने देता। कभी बहुत उदारता दिखाता तो पीछे लगे डण्डे पर एक पैर रख कर ठेलने ईजाजत दे देता। वह भी हर किसी को नहीं। इसी कारण सभी बच्चे उसे अपना दुश्मन ही समझते थे। हमने अक्सर उसे अपनी माँ से डांट और मार खाते ही देखा था । बहन की गलती या रोने पर भी मार उसे ही पड़ती।
एक दिन हमें वह साईकिल बिल्कुल लावारिस बरामदे में मिल गया। गर्मियों के दिन में हमें बाहर निकलने कि इज़ाजत नहीं थी। और हम शाम को ही बाहर निकलते थे। साईकिल देख कर मेरी और मेरे छोटे भाई बिमल की बाँछें खिल गई। ईधर उधर देखा कोई नज़र नहीं आया तो हमने साईकिल पर कब्जा कर लिया। बिमल बैठ गया और मै धक्का लगाने लगी। अभी बरामदे का एक फेरा लगा कर लौटे ही थे कि न जाने कहां से लंगड़ू नामूदार (प्रकट) हो गया। हमारा इरादा था कि जल्द से जल्द 2-4 फेरे लगा लेते। अगली बारी मेरे बैठने और बिमल के धक्का लगाने की थी। अपने इरादे पर पानी फिरता देख हम फौरन हमला करने के मूड में आ गए। मैं उसे एक तरफ से पकड़ कर पीछे ढ़केलने लगी तब तक बिमल भी आ गया और उसने उसे दूसरे तरफ से पकड़ा और हम उसे बरामदे के किनारे तक ले आए और नीचे उतरने पर मज़बूर कर दिया। उपर चढ़ना उसके बस का नहीं था क्योंकि उसका एक हाथ टेढ़ा था। बचपन में हड्डी टूटने पर इलाज नहीं कराने से हड्डी टेढ़ी जुड़ गई थी। घूम कर आना झाड़ियों के चलते खतरनाक था। अक्सर उसमें सांप दिख जाते। वह चढ़ने की कोशिश करता और हम उसका हाथ हटा देते। फिर तो वह चिल्लाने लगा और जोर जोर से बहन को बुलाने लगा। खैर उसकी माँ या बहन तो नहीं आई पर शोर सुन कर बाबूजी जरूर कमरे से बाहर आ गए। समझ तो गए ही होंगे कि हमने ही गिराया है पर हमें महसूस नहीं होने दिया और हमसे ही उसे ऊपर खिंचवाया और दोस्ती करवायी। बारी बारी से हाथ मिलवाया। वह साईकिल ले कर चलता बना । दोस्ती तो क्या होती वह और भी सावधान हो गया और उसने फिर कभी उस ट्राई साईकिल को अकेला नहीं छोड़ा।
मेरी बिटिया लाली बुआ के साथ (भिन्न साईकिल पर) |
इस तरह मेरी ट्राई साईकिल पर बैठने की हसरत हसरत ही रह गई। पर यह कहना कि यह हसरत कभी पूरी नहीं हुई गलत होंगा। उम्र बढ़ने पर ट्राई साईकिल चलाने की उम्र तो नहीं रही। पर जब मेरी बेटी 2 साल की थी तो उसके लिए एक अद्भुत ट्राई साईकिल आई। बिल्कुल मोटर साईकिल की तरह । उसकी सीट भी मोटर साईकिल की तरह लम्बी थी। ऐसी कि एक के पीछ एक दो बच्चे आराम से बैठ जाते। हमारा और अन्य पड़ोसियों के क्वार्टर एक common कॉरिडोर से लगे थे। और शाम को हम पड़ोसियों का जमावड़ा किसीके न किसीके यहां लगता था। अक्सर कुर्सियाँ या मोढ़े कम पड़ जाते । बिटिया का साईकिल तब बैठने के काम आता और हमें अपने बचपन की हसरत पूरी होती महसूस होती। बिटिया साईकिल चलाते चलाते कॉरिडोर में कहीं न कहीं छोड़ आती और पड़ोसी उसे हमारे दरवाजे के तक चला कर पहुंचा जाते। वैसी मोटर साईकिल जैसी ट्राई साईकिल फिर कभी नहीं देखी। अनोखी थी वह साईकिल ।