Saturday, April 25, 2020

बिराटनगर में एक दिन -सरोज सिन्हा

कोरोना के चलते चारो ओर ताला बन्दी (Lock down) है और कुछ लोग अल्प कालिक साहित्य सेवा में लग गए है। यहाँ तक कि मेरे पति भी लगातार ब्लॉग लिख रहे है। पर जब से उन्होनें यह विश्वास दिलाया की वे मेरी रचना को न सिर्फ टाईप कर देगें पर अपने ब्लागिंग साईट पर Publish भी कर देंगें मेरे अन्दर की प्रतिभा भी बाहर आने को मचल रही हैं कि क्यो नहीं इस बहती गंगा में मै भी डुबकी लगा लूं। पता नहीं यह पूरी डुबकी बन पाएगी या सिर्फ कौवा स्नान बन कर रह जाएगी। क्योंकी लेखन क्रिया मेरे बस की बात नहीं है। फिर भी कुछ खट्टे मीठे कड़वे या गुदगुदाने वाले अनुभव या यों कहे की यॉदें सबके साथ साझा करने की चेष्टा कर रही हूँ।
तब की बात है जब मैं 5-6 साल की थी । बाबूजी की Posting नेपाल के बिराट नगर में थी। मै और मेरे छोटे भाई बिमल और किशोर माँ के साथ काठमान्डू से बिराटनगर आ गए थे। हम किराये के मकान में रहते थे । मकान दो मंजिला था। सामने लम्बा सा करीब 10 फीट चौड़ा बरामदा था। इसी बरामदे से लगे कई कमरे थे जिसमें कई और किरायेदार रहते थे। अन्दर कमरे से लगे बरामदे थे। छोटा सा आंगन था और दूसरी ओर रसोई घर था। रसोईघर की खिड़की काफी नींची थी और किशोर जो 2 साल का था रसोई से चम्मच, कटोरी वैगेरह बाहर गिरा देता था। हमारी कामवाली जिसे हम लोग बुढ़ी माई कहते थे रोज शाम को गिराए गए सामानों को ले आती थी। घर के चारो ओर थेथर और अन्य झाड़ों की घनी झाड़िया थी।

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मकान के उपर के तल्ले में और भी किरायेदार थे। एक कैप्टन साहब भी थे। बगल का एक कमरा मकान मालकिन के भाई का था।उन्हें हमलोग मामा कहते थे। वे कहीं दूसरे शहर में पढ़ाई करते थे और सिर्फ छुट्टियों मे बिराट नगर आते थे। हुआ यों कि एक शनिवार (नेपाल में छुट्टी का दिन) मामा जी आए हुए थे और सिनेमा देखने गए हुए थे। मै और बिमल खेलते हुए घर के पीछे  शायद बॉल ढ़ूंढते ढ़ूंढते चले गए। और झाड़ियों में हमें नजर आया एक साँप की पूरी की पूरी केंचुली। उस समय बिराट नगर में सांप बहुत हुआ करते थे । हमने एक लम्बी छड़ी ढ़ूंढी और उस केंचुली को घर ले आए। यॉद नहीं बॉल का क्या हुआ। शायद बिमल को यॉद हो। छुट्टी का दिन था तो बाबूजी भी घर में ही थे। हमें डांट भी पड़ी कि झाड़ी में क्यो गए और यह क्या उठा लाए। बाबूजी ने छड़ी हमारे हाथ से ले ली और फेंकने निकले।तभी उन्हें कुछ ख्याल आया और उन्होंने उस केंचुली को "मामा" के कमरे की खिड़की से जो खुली थी, पलंग पर मचछरदानी के उपर फेंक दिया। पूंछ उपर और मुंह वाला हिस्सा नीचे की ओर लटका दिया। हमें कहॉ गया कि मामा को डरा कर मज़ा लेंगे। यह घटना 4-5 बजे शाम की थी और हम भूल भी गये थे । रात करीब साढ़े नौ दस बजे चीखने चिल्लाने की आवाज से सब बाहर निकल पड़े। हमारे साथ साथ और किरायेदार, पड़ोसी और मकान मालिक जो बगल में ही रहते आ गए। यानी अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा हो गई। मामा जी के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी -- सांप सांप ......। सांप का नाम सुनते ही सभी सूरमा लोग लाठी डण्डे ले कर आ गए। कमरे के दरवाजे को जोर जेर से ठकठकाने लगे कि शायद सांप बाहर आ जाए। अन्दर जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। किधर से आया.? .... उपर कैसे चढ़ा ? अगर मदन (मामा) घर पर होता तो क्या होता ? ..शंका और आशंका। बाबूजी ने आगे बढ़ कर केंचुली निकालने की चेष्टा की यह कह कहते हुए की सांप यहां नहीं है यह तो.....। पर इतनी देर में चार लोगों ने उन्हें पीछे खींच लिया "ज्यादा बहादुर न बनें" ! लोगों की चिन्ता व्यग्रता और उत्तेजना देखकर बाबूजी की हिम्मत नहीं हुई सच्चाई बताने की। सांप के लिए निकले लट्ठ कहीं उनपर ही न टूट पड़े। मकान मालकिन तबतक कोहराम मचाते हुई अपने पति पर विफर पड़ी कि झाड़ियों के कारण ही इतने सांप हो गए है और वे कुछ पैसे बचाने के चक्कर में उनके भाई के जान के दुश्मन हो गए हैं। सबके बार बार शिकायत करने पर भी मकान मालिक झाड़ी साफ नहीं करवा रहे थे।
बाबूजी ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी पर हमारी ओर सशंकित नज़रो से देख रहे थे कि कहीं हम न बोल पड़े । मामा  रात में कहीं और सोए ..कमरे में "सांप" जो था।
अगली सुबह उजाला होते ही चार मजदूर पहुंच गए और दस बजते बजते सारी झाड़िया साफ हो गई। फिर कमरे की सफाई हुई, सारे  सामान निकाले गए, पर सांप नहीं मिलना था और वो नहीं मिला।
जो झाड़ियाँ महिनों की शिकायत के बाद भी साफ नहीं हो पायी थी एक छोटे से मजा़क ने करवा दिया। मैंने और बिमल ने रहस्य को रहस्य ही रहने दिया था। पर आज ये रहस्योदघाटन कर ही डाला मैंने। झाड़ी कटने का एक घाटा भी था। किशोर के फेंके सामान अब गायब होने लगे थे।

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