Friday, July 24, 2020

एक अहसास सिहरन भरा ! - सरोज सिन्हा


जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनकी हम व्याख्या नहीं कर पाते। कुछ अनुभूति कुछ अनुभव कुछ अहसास ऐसी होती है जिस पर चाह कर भी हम अविश्वास नहीं कर पाते। इस घटना की साक्षी मेरी माँ थी। वो इस घटना का वर्णन इतने रोचक ढ़ंग से करती हम मंत्रमुग्ध सुनते रहते। हम अक्सर उनसे अनुरोध कर इस घटना को बारम्बार सुनते। जब मेरा पोता TV पर डरावनी घटनाओं पर आधारित फिल्म बारबार देखता है तब माँ से ये कहानी सुनने की हम लोगों की ललक का कारण समझ में  आ गई है। 
मै माँ के शब्दों में ही ये कहानी सुनाती हूँ। शायद न्याय कर पाऊँ।
उन दिनों काठमाण्डू खेत और पेड़ों से भरा एक हरा भरा शहर था।मध्य भाग में जो पुराना शहर है वहाँ घनी आबादी और एक दूसरे से सटे हुए घर थे जो अब भी है। पर बाकी आबादी बगीचे और खेत से घिरे तीन या चार मंजिलों वाले मकानों में रहती थी। सामने बगीचा या फुलवारी होती थी जहाँ कुछ फलों के पेड़ और फूलों के पौधों के आलावा मकई और कुछ सब्जी लगे होते पीछे धान के खेत होते थे। इसी तरह के घर में हम किराये पर रहते थे। वह घर तीन मंजिलों का था। बीच वाले तल्ले पर बैठक और दो कमरे थे। सबसे उपर रसोई और भण्डार घर था। सबसे नीचे वाला तल्ला लकड़ी वैगेरह रखने के काम आता था।
उन दिनों बिजली नहीं थी। रात का खाना आठ नौ बजे तक निपट जाता था। रसोई समेट कर जूठे बर्तन दूसरे सिरे पर बने बर्तन माँजने की जगह पर रख दिया जाता । सुबह 4 बजे काम करने वाली आ जाती थी। नौ साढ़े नौ बजे रात तक लालटेन की लौ धीमी कर सब सो जाते।अचानक एक दिन कुछ आवाज से मेरी नींद टूटी।उपर से खरड़ खरड़ बरतन माँजने जैसी आवाज आ रही थी। उन दिनों स्पांज के स्क्रबर तो था नहीं, विम बार वैगेरह भी नहीं थे। पुआल के कुछ रेशे मोड़ कर राख से बर्तन रगड़े चमकाए जाते। बर्तन भी पीतल कांसे के होते थे और कड़ाही लोहे की। मै उठ बैठी। क्या सुबह हो गई? क्या काम वाली कान्छी आ गई? कई सवाल ज़ेहन में उठ खड़े हुए। मुझे लग रहा था जैसे अभी ही आँख लगी हो। उठ कर बाहर आ गई। देखा सारे कमरे बन्द थे। तो कान्छी के लिए दरवाजा किसने खोला? मै दबे पांव हाथ में लालटेन लिए उपर सीढ़ियो से चढ़ी। अंतिम पायदान पर लकड़ी की सीढ़ी चरमराई और उपर से आती आवाजे रूक गई। रसोई घर में सभी कुछ यथावत था। एक तिनका भी इधर से उधर नहीं हुआ था। लालटेन घुमा घुमा कर चारो ओर देखा, कुछ भी असमान्य नहीं नज़र नहीं आ रहा था। पता नहीं नींद में शायद मेरे कान बजे होंगे। मै वापस आ कर सो गई। सुबह यह घटना मै भूल भी गई। किसी से कोई जिक्र भी नहीं किया।
लगभग एक हफ्ते बाद फिर अचानक इसी तरह नींद टूटी। बर्तन की एक दूसरे से टकराने की आवाज आ रही थी।मैने सोचा कोई पानी पीने उपर गया है, तभी बड़ी जोरों की आवाज आई जैसे बर्तनों की टोकरी किसी के हाथ से छूट गई हो और बर्तन  के एक दूसरे से टकरा कर गिरने की झन्नाटेदार की आवाज आई। मै फिर उठी लालटेन लिया और उपर चढ़ने लगी, तब तक सब शान्त हो गया।अगले दिन इसका ज़िक्र मैने अपनी माँ से किया। उनको भी किसी दूसरे दिन यह अनुभव हुआ था। फिर ऐसी घटना अलग अलग दिन घर के अलग अलग सदस्यों के साथ हुई। यानि आवाज सिर्फ एक को ही सुनाई देती।सबको एक साथ नहीं। कुछ दिनों के तनाव और चिन्ता के बाद सब उसके आदी हो गए और अनसुना करने लगे क्योंकि कोई हानि, कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही थी।
एक दूसरी घटना विराटनगर की है। जहाँ हम तीनों भाई बहन मै, बिमल और किशोर और बुढ़ी माई, माँ बीबूजी के साथ दरभंगा से आए थे।
ये घटना भी माँ के शब्दों में ही सुनिए।
विराटनगर आए अभी कुछ ही दिन हुए थे।पड़ोस के एक भाभीजी से जान पहचान हो गई तो गृहस्थी जमाने में कुछ मदद भी मिल जाती थी। मन्दिर जाना था। मन्दिर का पता उन्हीं से पूछा तो वह अगली सुबह साथ चलने को राजी हो गई। अगली सुबह हम दोंनो मन्दिर के लिए निकले, तीनों बच्चों को बुढ़ी माई के जिम्मेवारी पर छोड़ कर। मंदिर ज्यादा दूर नहीं था । छोटा सा मंदिर था। अन्दर दो महिलाएं पूजा कर रही थी और जगह इतनी ही थी कि दो लोंगो से देवी स्थल भर गया था। मै और भाभी जी बाहर खड़े उनके निकलने का इंतजार करने लगे । अचानक किसी ने मेरे दाहिने कंधे पर हाथ रखा। चार उंगलियों का स्पष्ट स्पर्श कंधे पर महसूस हुआ क्योंकि उंगलियाँ बर्फ सी ढ़ण्ठी थी। मैने चौंक कर पीछे देखा पर वहाँ कोई न था। मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी सी भर गई और रोएं खड़े हो गए। तब तक दोनो महिलाएं बाहर आ गई थी और भाभीजी ने मुझे मंदिर के अंदर कर दिया। पूजा करते हुए भी मेरे शरीर में बारबार झुरझुरी हो रही थी और घर पहुंचते पहुंचते बुखार नें जकड़ लिया। भाभीजी को बताया तो उन्होनें फिर मुझे उस मंदिर में जाने से मना किया कि शायद मेरी उपस्थिति "किसी" को बर्दाश्त नहीं हुई है।
विराट नगर का ये घर भी काठमाण्डू के घरों जैसा ही था। लकड़ी की सीढ़ी कमरे के बाहर एक खुले बरामदे से ऊपर जाती थी। उपरी तल पर रसोई घर के आगे छोटा से खुला बरामदा था। नेपाली में कौशी। रसोईघर के दरवाजे से कुछ आगे की ओर निकला हुआ सिमेन्ट किया हुआ था बर्तन आदि धोने के लिए। टाइल किया ढ़लावदार छत रसोईघर के दरवाजे से आगे उस बॉलकनी तक पहुंचते थे लगभग तीन फीट की ऊंचाई तक। छत दाल, बड़ी आदि सुखाने के काम आता था।
बच्चे छत पर बॉल फेंकतें तो वो लुढ़कते हुए बरामदे (कौशी) में गिरते। ये उनका खेल था। रात खाना बनाते समय अक्सर ऐसी आवाजे आती जैसे किसी ने एक मुठ्ठी मटर या चने के दाने छत पर डाले हो जो लुढ़कते हुए झरझर की आवाज से बरामदे में गिर रहे हो और लुढ़कते हुए पूरे बरामदें में फैल गए हों। लेकिन देखने जाओ सब साफ सुधरा बरामदे में एक दाना भी नज़र नहीं आता। दो चार बार की इस घटना से अचम्भित हो ही रही थी कि एक रात खाना बनाते समय किसी के उपर आने की आहट हुई। लकड़ी की सीढ़ी की अंतिम तीन पायदान पर तीन पदचाप और किसीके दरवाजे से आगे बरामदे में जाने की एक झलक नज़र आई। कौन है? आवाज देने पर भी किसी ने जवाब नहीं दिया। शायद बुढ़ी माई कुछ लेने आई होगी। सोच कर मै व्यस्त हो गई। बुढ़ी माई नीचे कमरे में बच्चों को ले कर बैठी थी। अगली रात फिर वही घटना हुई तो मै उठ कर देखने आई वहाँ कोई नहीं था, नीचे उतर कर देखा बुढ़ी माई बच्चों को ले कर व्यस्त थी।
पूछने पर उसने नकार दिया कि वह तो अपनी जगह से उठी भी नहीं है। कुछ डर भी लगा। बच्चों के बाबूजी हर शाम दोस्तों से गप्पे लड़ाने या ताश का महफिल जमाने चले जाते थे। अगली शाम मैने उन्हें न जाने दिया। वे मेरे साथ रसोई घर मे बैठे रहे तब सब कुछ सामान्य था। लगातार दो तीन दिन रसोई में उनके साथ रहने तक सब कुछ सामान्य रहा। फिर वे नीचे बच्चों के साथ बैठने लगे। लगभग आठ दस दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा और मैं भी सब भूल गई। वे भी अपनी ताश पार्टी में जाने लगे पर दो दिनों बाद फिर वही घटना घटने लगी। कभी छत से मटर के दाने लुढ़कते और कभी सफेद कपड़े की छाया झट से दरवाजे से ईधर से उधर होती। फिर मै इनको (बच्चो के बाबूजी को) रोक लेती और सब कुछ सामान्य हो जाता और मैं मज़ाक बन कर रह जाती। तीन चार बार ऐसा ही हुआ। अगली बार जब वही पदचाप और सफेद झलक दिखी तब मुझे डर से ज्यादा गुस्सा आया।चूल्हे से दो दहकती सुलगती लकड़ी दोनों हाथों में लेकर मै बरामदे में बाहर आ गई।दोनों हाथों की मशाल घुमाते हुए चिल्लाई "कौन है सामने आओ। सामना करो जो भी हो तुम, आज मै तुझे जला ही दूगीं।" कुछ देर तक सुलगती लकड़ी घुमाते हुए ईधर उधर घुमती रही। फिर लौट कर खाना बनाने बैठ गई। जोश में ललकार तो दिया, पता नहीं किसे, पर अब मेरा दिल धड़क धड़क कर बाहर आने को हो रहा था पर मै हिम्मत से बैठी अपना काम करती रही । उनके घर आने के बाद उन्हें सब बताया तो वो भी कुछ विचलित हो गए। कुछ दिनों तक उनका संध्या कार्यक्रम स्थगित रहा फिर सब कुछ सामान्य चलने लगा। फिर उसके बाद "उससे" साबका नहीं पड़ा। अब न वो आवाज आती मटर लुढकने की,न ही अनचाही उपस्थिति का कोई आभास हुआ। शायद मन का डर ही सबसे बड़ा डर होता है जिस पर "डर" हावी हो जाता है।

Sunday, June 14, 2020

एक यादगार यात्रा-सरोज सिन्हा

यात्राएं ब्लॉग के लिए बहुत ही बढ़िया विषय है। हर  यात्रा की कुछ स्मृतियाँ शेष रह ही जाती है। अंग्रेजी में ऐसे ब्लाग को travelogue भी कह सकते है। हिन्दी में बड़ा ही फीका शब्द है "यात्रा संस्मरण"! शब्द कैसा भी हो और यात्रा का कैसा भी अनुभव रहा हो वह बार बार याद आता है जिन  बातों पर कभी दु:खी हुए थे उन्हीं बातों पर अब हँसी आती है। नीचे लिखा वृतांत मै अपने छोटे भाई किशोर के अनुरोध पर लिख रही हूँ।

एक यात्रा में मैं अपना नया चप्पल खो चुकी हूँ। बाबूजी कलकत्ता से लाये थे लाल और नील रंग की सैंडिल। पहली बार पहन कर यात्रा कर रही थी। बड़े एहतियात से मैंने चप्पल सीट के नीचे रखकर सीट पर बैठ गई। खिड़की बंद कर दिया गया था क्योकि मेरा छोटा भाई किशोर पानी पी कर गिलास खिड़की से बाहर गिराने की चेष्टा कर चुका था। २ वर्ष के किशोर की चम्मच, छोटे प्लेट आदि रसोई की खिड़की से बाहर गिराने की आदत से हम लोग परिचित थे। काफी देर तक सभी यात्री बड़ी होशियारी से उस पर नज़र रखे थे। फिर कुछ असावधान हो गए होंगे। किसी ने कुछ कारणवश खिड़की का शटर ऊपर उठाया और किशोर ने अपनी फुर्ती दिखाई और बिजली की गति से एक चप्पल उठाया और खिड़की के बाहर। खिड़की खोलने वाले ने खिड़की बंद करने की तत्परता दिखाई पर उससे कुछ देर हो गई थी। अब बाबूजी ने दूसरी चप्पल उठाई और उसे भी बाहर फेंक दिया। सभी यात्री भौचक रह गए। एक चप्पल तो किसी के काम का नहीं बाहर किसी को दोनों मिल गए तो किसीके काम आ जायेगा। बाबूजी का कहना था।और मैं? मै न रो पा रही थी न इतने लोगों के बीच किशोर के कान खींच सकती थी।

इस यात्रा के बहुत वर्षो बाद की एक घटना याद आ रही है। मेरी नन्हीं सी बिटिया पड़ोस के किसी बच्चे के लाल चप्पल देखने के बाद लाल चप्पल लाने के लिए अपने पिता से जिद नहीं सिर्फ कहा भर था।  और वे रोज शाम को लाना भूल जा रहे थे। दो दिन धैर्य रखने के बाद तीसरे दिन पिता को खाली हाथ आते देख उसकी आँखें डब डबा आई । रोनी आवाज में उसने कहा था "पापा मेरा लाल लाल चप्पल?" पिता को उलटे पैर लौट कर उसी समय लाल चप्पल लाने को मजबूर होना पड़ा था। तब मुझे बरबस यह चप्पल याद हो आया था जिसे मेरे पिता ने बिना मांगे ही लाया था।

स्टीम इंजन वाली ट्रेन जब छुक छुक चलती तो खिड़की के पास बैठने के लिए बच्चों में धक्का मुक्की हाथा पाई भी हो जाती। जिसे खिड़की वाली सीट मिल जाती वह ऐसी मुस्कान प्रतिद्वंदी की ओर फेंकता मानों स्वर्ण पदक मिल गया हो । पर अगले दस मिनट के अन्दर कोयले के कण के कारण सारा मजा किरकिरा हो जाता । आँखें बंद कर सोने का आदेश माँ से मिलता और सो कर उठो तो सच में कोयला आंसुओ में बह चुका होता।अक्सर यात्रा गर्मी में होती और मंजिल तक पहुंचते पहुंचते पसीने में और कोयले के लेप के कारण बच्चे बदरंग हो चुके होते। रेल यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण था हर स्टेशन पर आने वाले खोमचे वाले। झालमुढ़ी, चिनिया बदाम (मूंगफली), राम दाना का लाई,  चना घुघनी, खट्टी मीठी लेमन चूस वाले। चनाजोर गरमवाला बड़े मजेदार गानों के साथ "मेरा चना बना है आला" अपना माल बेचता। सास बहू के झगड़े का इस रोचक अंदाज से वर्णन कर रहा होता कि लोग बात करना भूल जाते । जब लोग उसकी कविता या गीत मनोयोग से सुन रहे होते, तभी वह गाना बंंद कर देता। जब तक ४-५ यात्री उसके स्वादिष्ट चनाजोर गरम के कोन न खरीद लेते उसका गीत आगे न बढ़ता। यदि बोहनी अच्छी होती तो सास बहू का झगड़ा रोचक अन्दाज में लम्बा चलता।

पर यदि यात्री बिना खर्च किए मजा लेने को अड़ जाते तो वह सास बहू का समझौता करवा कर आगे बढ़ जाता। बचपन कि उन यात्राओं में अनेक रोचक अरोचक वाकयो से पाला पड़ा। अब तो वातानुकूलित डब्बे में पहले से आरक्षित बर्थ पर आरामदायक यात्रा करते हुए भी उन अनोखे बोल और अनूठे आवाज वाले खोमचे वालों का आभाव यात्रा के मनोरंजन को कम कर देता है ।और यदि आप प्रथम श्रेणी मे यात्रा कर रहे हो तो सह यात्रियों से अक्सर बिना कुछ कहे सुने पूरी यात्रा समाप्त हो जाती है।
ऐसे भी ज्यादातर यात्री पूरा समय मोबाइल मे सर्फिन्ग करते हुए या विडियो या गाना का आनन्द लेते गुजार देते है। मै भी किताबों का सहारा ले कर समय काट लेती हूँ। आज बस इतना ही ।

Wednesday, June 10, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी: तीसरा भाग। - सरोज सिन्हा

यात्रा या यात्रा करने के साधन याद करूं तो अनेक रोचक प्रसंग याद आते हैं । बचपन से ही काफी सारी स्मरणीय यात्राएं करने का संयोग प्राप्त हुआ है। दादीगृह दरभगां है, बाबूजी विराट नगर में नौकरी पर थे और नानीगृह काठमाण्डू होने से रेलगाड़ी और बस से काफी यात्राएं करनी पड़ती थी। दरभंगा से विराटनगर की यात्रा के बीच ट्रेन भी बदलनी पड़ती। स्टेशन पहुंचते ही यात्रियों के बीच सूचनाओं का आदान प्रदान शुरु हो जाता। "आगे वाले या पीछे वाले कुछ डब्बे रास्ते में कट कर कहीं और चले जाएगे" या "आगे वाले डब्बे में भीड़ कम होगी"। यह तब का सर्व सुलभ गूगल हुआ करता था। अक्सर लोग अपनी चिन्ताओं और शंकाओं का समाधान इन सूचनाओं के बल पर कर लेते। सामान भी उसी जगह रखवाया जाता जिस जगह इच्छित डब्बे के आने की संभावना होती। पर लाख चाहने पर भी ऐसा   इच्छित डब्बा या तो आगे जा कर रुकता या पीछे ही रह जाता।

मीटर गेज या छोटी लाईन की पैसेंजर ट्रेनों में तब खिड़की में रॉड नहीं हुआ करता था।भीड़ इतनी की हम बच्चे सहम जाते। हमें याद नहीं कि हमने बचपन में कभी दरवाजे से डब्बे में प्रवेश किया हो। गाड़ी के प्लेटफार्म में प्रवेश करते ही यात्री या उन्हें छोड़ने आए लोग हाथ में गमछा लिए दौड़ पड़ते और खिड़की से ही उतरने वाले यात्री के सीट पर गमछा, रुमाल आदि रख दिया जाता। कभी कभी गमछा सही जगह रखने के लिए अंदर बैठे यत्रियों की मदद भी ली जाती। जैसे ही गाड़ी रुकती एक एक कर बच्चों को खिड़की से अन्दर ट्रान्सफर कर दिया जाता । कुछ सामान भी खिड़की के रास्ते अंदर आ जाता और फिर बड़े लोग  माँ, बाबूजी भीड़ के बीच जगह बनाते हुए अंदर पहुँचते। सामान भी कम नहीं होता । टीन का बक्सा और होल्डाल तो अत्यावश्यक चीज़ होती थी। साथ में थैला वैगेरह भी होता। पानी का लोटा, गिलास, खाने पीने का सामानों से भरा बाँस या बेंत की बनी टोकरी भी होती। अंदर सीट पर विराजमान यात्रियों के लिए नए आये यात्री तो घुसपैठिये होते। कुछ तू-तू मैं-मैं भी होती पर १५-२० मिनट में भाईचारा स्थापित हो जाता। नए यात्रियों के टिकने भर की जगह निकल आती। बच्चों के बैठने की व्यवस्था भी हो जाती। एक दूसरे से नाम पता कहाँ जाना है वैगरह पूछा जाता और कभी-कभार जान पहचान भी निकल आती।

दरभंगा रेलवे स्टेशन
स्टेशन पर गाड़ी रुकने के पहले ही चापाकल देख लिया जाता। गाड़ी रुकते ही लोटा लिए शीतल जल के लिए लोग  नजदीक वाले या जहाँ भीड़ कम हो उस नल की ओर दौड़ जाते।   कभी कभी पहुंचने पर पता चलता की भीड़ जिस नल पर कम है वहाँ पानी भी कम आ रहा है । मर्फी'ज लॉ हर जगह लागु होता ही है। बाबूजी के पास एक फौजी फेल्ट का कवर लगा एक टम्बलर था जिसमें पानी काफी समय तक ठंडा रहता। उन्हीं यात्राओं के दौरान एक बार चापाकल को डब्बे के बिलकुल सामने देख माँ ने हमारी 'बूढ़ीमाई' (मेरे पहले के ब्लॉग देखे) को पानी लाने का आदेश दिया। 'बूढ़ीमाई'  हम लोग के साथ ही यात्रा कर रही थी। ट्रेन वहाँ काफी देर रुकती थी। बूढ़ीमाई नीचे उतरी और अभी पानी भर ही रही थी की ट्रेन चल पड़ी। जब तक दौड़ी, गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली। असल में ट्रेन के कुछ डिब्बे वहाँ कटते थे जिसके लिए ट्रेन को यार्ड में जाना था।
गाड़ी ने गति पकड़ ली तो बाबूजी भी उतर न सके लेकिन उन्हें पता था कि ट्रेन लौट कर उसी प्लेटफार्म पर आएंगी सो वे ज़्यादा चिंतित नहीं थे। पर आधे घंटे बाद जब ट्रेन वापस आई और बाबूजी नीचे उतरे तो चकरा गए, क्योकि चापाकल के पास २०-२५ लोगों की भीड़ इकठ्ठा थी। घबराये बाबूजी वहाँ पहुँचे तो भीड़ के बीच बूढ़ीमाई को देख कर उनकी जान में जान आई । जो भीड़ अब तक बूढ़ीमाई को मुखातिब थी अब बाबूजी को प्रश्नो से बींधने लगी। कैसे मालिक हैं? अजीब लोग हैं इत्यादि। बाबूजी जल्दी पानी का लोटा और बूढ़ीमाई दोनों को लेकर ट्रेन पर सवार हो गए। हुआ यह कि गाड़ी में चढ़ने की चेष्टा में असफल होते ही बूढ़ीमाई पछाड़ खा कर गिर पड़ी और बिलख बिलख कर रोने लगी। लोगों ने समझाने की कोशिश की कि ट्रेन वापस आ जाएगी पर बूढ़ीमाई का क्रंदन कम न हुआ। वह उनके सभी सवाल जैसे  "मालिक का नाम क्या हैं?" " कहाँ जाना है?" " कहाँ से आ रही हो?" का जवाब  नेपाली में दे रही थी "थाहा छैन"  यानी पता नहीं। अजनबी वेशभूषा, अजनबी भाषा लोगों को आकर्षित कर रही थी।  सबका मुफ्त मनोरंजन भी हो रहा था। इस घटना के बाद बूढीमाई को कभी किसी भी काम के लिए ट्रेन से नीचे नहीं भेजा गया और बूढ़ीमाई? वह तो गंतव्य तक ऐसे पालथी मार कर बैठ जाती कि हिलने  का नाम न लेती।नतीजन आठ नौ घंटे की यात्रा में उसके दोनों पैर सूज जाते थे। अनोखी थी हमारी बुढ़ीमाई। माँ का स्नेह और बच्चे की निश्चलता दोनों एक साथ थी उसमें।
बोतल बन्द पानी के बढ़ते उपयोग से नल के पानी पर निर्भरता कम हो गई है। अब विरले ही पीने के पानी के लिए लोटा ग्लास ले कर चलते है। बोतल बन्द पानी आसानी से ले जाया जा सकता है या प्लेटफार्म या ट्रेन के अन्दर खरीदा भी जा सकता है। सीट या बर्थ भी अब पहले ही आरक्षित कर सकते है । और तो और अब तो बिना रॉड वाले डब्बे भी नहीं होते। पर अब नई परेशानियों ने पुरानी की जगह ले ली है।आज बस इतना ही ।

कुछ और अनुभव फिर कभी ।


Monday, May 25, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी: दूसरा भाग। - सरोज सिन्हा

मै पहले भाग में अनोखी और सरल बूढ़ी माई के बारे में लिख चुकी हूँ। शायद पढ़ा हो आपने। फिर से पढ़ना चाहे तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
दूसरा भाग
पिछली बार मै उन्ही घटना के बारे में ही बता पाई जो हमारे सामने घटित हुई।उसने अपने पूर्व जीवन के बारे में टुकड़ो में जो भी बताया उसे संकलित कर बाकी की कहानी प्रस्तुत है।

बुढ़ी माई को हमारे घर काम करने के लिए उसका पति लेकर आया था और हिदायत दे कर गया था कि तनख्वाह के पैसे लेने वह खुद आएगा।हर महीने के पहले शनिवार को वह पहुंच जाता।अपनी 'बूढ़ी' को आवाज देता और पैसे ले कर चला भी जाता पर बूढ़ी माई घर के अन्दर ही कहीं दुबकी रहती।जब तक उसे विश्वास न होता कि उसका 'बूढ़ा' चला गया तब तक वह बाहर नहीं निकलती। मैनें एक बार पूछा तो बोली कि मेरा घर यही है।उसे डर था कि वह उसे अपने साथ उसके घर न ले जाए। लगभग ४५ की थी जब वो हमारे घर आई थी।पहाड़ पर कठिन परिश्रम और उस से भी कठिन मौसम झेलने के चिह्न पहाड़ी लोगों के चेहरे पर झुर्रियों के शक्ल में उभर आता  है और वे उम्र से ज्यादा उमरगर नज़र आने लगते हैं।

मै, बुवा (नाना) , किशोर और विमल
अपने बारे में ज्यादा बात करने की आदत नहीं थी उसे, पर टुकड़ो में  कभी कभी कुछ बता देती। यह उसका तीसरा पति था। खाना बनाना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था । शायद पहला पति इसीलिए दूसरी बीबी ले आया था ।  फिर भी समस्या नही सुलझी।दूसरी को भी यह मंजूर नहीं था कि वही   हमेशा खाना पकाए। तो पति ने समाधान निकाला और एक दिन के अन्तराल पर दोनो में काम का बंटवारा कर दिया । पानी लाना,  सफाई,  बकरी चराना, उनका चारा लाना, लकड़ी लाना सारे काम वह खुशी खुशी कर देती पर जिस दिन खाना बनाने की बारी होती वह मुंह अन्धेरे बकरियाँ लेकर पहाड़ी जंगल में निकल जाती । सुबह निकलते समय चूड़ा, भूँजा, नमक की पोटली बांध लेती देर शाम को ही चारा घास लेकर लौटती ताकि रात का खाना भी न बनाना पड़े। झख मार कर दूसरी को ही खाना बनाना पड़ता और फिर जो खूब झगड़ा होता होगा कल्पना ही कर सकते है। आखिर परेशान हो कर भाग गई किसी और के साथ। पर यहाँ तो आकाश से गिरे खजूर पर अटके वाली हालत थी। इस दूसरे पति की पहले से ही दो पत्नियाँ थी। अब पति के साथ दो-दो सौतनों को भी झेलना था। जब बरदाश्त न कर सकी तो फिर भाग गई तीसरे पति के साथ । लेकिन खाना बनाने को लेकर यहाँ भी रोज़ झिक-झिक होने लगी। पति ने उसे यहाँ काम पर लगाया और अपनी गृहस्थी संभाल ली नई बीवी के साथ।

तीन-तीन शादी करने के बाबजूद उसको कोई बच्चा न हुआ। एक बार हमने उसे पूछ लिया उसके बच्चों के बारे में तो बहुत आहत स्वर में कहा था तुम लोग क्या मेरे बच्चे नहीं हो? फिर हम भाई बहनो ने यह प्रश्न कभी नहीं किया। मेरे दूसरे भाई किशोर के जन्म के कुछ महीने बाद ही हमारे घर आई थी। दो साल बाद अनिल और फिर गुड्डू का जन्म उसके सामने ही हुआ था। अनिल के प्रति कुछ विशेष ही स्नेह था उसका।

झुर्रियों से भरा चेहरा,  छोटा कद लेकिन मजबूत काठी। होठ हमेशा बुदबुदाने के कारण हिलते रहते। अक्सर सामने कोई  नहीं होने पर भी 'हट हट' बोलते हुए चलती। सुन कर हम खूब हंसते। उसके अनुसार हवा में हमेशा अदृश्य आत्माएं घूमती रहती है। उनसे टकराना अच्छा नहीं । हमारे हंसने पर कुछ आहत भी होती।

सप्ताह में एक दिन पूरे घर में पूजा करती, नज़र उतारती , हर कमरे के उपर अबीर का टीका लगाती फिर हम बच्चों का नज़र उतारती। रेडियो को 'रेड्डी' बोलती। लोकगीत कार्यक्रम में जब भी तामांग गीत बजता बैठ कर मनोयोग से सुनती और आश्चर्य व्यक्त करती कि इस 'रेड्डी' को हमारा गाना कैसे पता है ? हमारे अनुरोध पर एक दो लाईन गा कर भी सुनाती।

किसी बाहरी लोग से 'अपने  घर' की आलोचना बिल्कुल मंजूर न था। चप्पल पहनना उसे बिल्कुल पसंद न था। आस पड़ोस के लोग व्यंग से टोक देते 'मालिक ने एक चप्पल भी नहीं दिलवाया ?' तुनक कर जवाब देती 'मालिक ने मुझे इतने चप्पल दिए हैं कि उन्हें बिछा कर सोती हूँ अगर चाहिए दो चार दे सकती हूँ।' और फिर गुस्से में फनफनाती भुनभुनाती घर लौटती और माँ को पूरी घटना बताती।

हम चार भाई बहनों के उत्पात का अन्त न होता (गुड्डू तब बहुत छोटा था) । सबके  फरमाइस व अत्याचार सहती। आपस में हमारी लड़ाई भी खूब होती, और माँ से डाँट और पिटाई भी मिलती। लेकिन माँ के पहले थप्पड़ पर ही बूढ़ी माई भुनभुनाती घर के दूसरे भाग में नानू-बुवा (नानी, नाना)  के पास पहुंच जाती। हांफती, कांपती आवाज में 'गुहार लगाती' कि आज तो किसी बच्चे की जान जाने वाली है, जल्दी चलिए। पूरी बात कहने का अवकाश कहाँ था बूढ़ी माई के पास। जान जाने की बात पर नानू-  बुवा घबड़ा कर चले दौड़े चले आते। उन्हें देख कर माँ हतप्रभ रह जाती। माँ को ही झिड़की सुननी पड़ती और हम मुंह छुपा कर हँसते। धीरे धीरे हम बड़े हो गए और हमारी जगह हमारे ममेरे और मौसेरे  छोटे भाई बहनें ने ले ली। उनके लिए भी बूढ़ी माई उतनी ही चिन्तातुर रहती।
बूढ़ी माई हमारे बचपन और जीवन की अटूट हिस्सा थी। मेरे अगले ब्लॉगों में वर्णित कई घटनाओं की नायिका भी बूढ़ी माई है,  आशा है आप पढ़ेगें।

Monday, May 11, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी। - सरोज सिन्हा

जीवन के सफ़र में अनेक लोगों से साबका पड़ता हैं। कभी पढ़े लिखे डिग्री हासिल किए लोगों की संकीर्ण मानसिकता हमें दुखी कर जाती है और कभी बिलकुल अनपढ़ और लोगों की नज़र में गंवार समझे गए लोगों का नज़रिया आश्चर्य में डाल देता है। ऐसा ही विलक्षण  व्यक्तित्व था बुढ़ीमाई का। बचपन से ही बूढ़ीमाई को साथ देखा था। ५ वर्ष की थी जब वह हमारे यहाँ रहने आई । मेरे दूसरे छोटे भाई किशोर के जन्म के समय से ही लगभग पच्चीस वर्षों तक साथ रही। छोटा-सा कद, चेहरे पर अनेक सिलवटें और झुर्रियों का जाल । पर होठों पर एक मुस्कुराहट। ऊँची साड़ी और कमर में पटुका बाँधे हर समय काम में ब्यस्त।
बुढ़ी माई रूपा, किशोर, बबली और मुन्ना के साथ
पूरे घर की सफाई, पुताई उसकी ही जिम्मेवारी थी । काठमांडू में पुराने घरों में फर्श मिटटी के ही होते थे । महीने में एक दिन फर्श पर बिछी दरी और चादर उठाकर धूल झाड़ा जाता, धूप दिखाई जाती । घर के फर्श पर मिटटी और गोबर की पुताई की जाती। सूखने पर सभी सामान यथास्थान रखा जाता। सोफे या कुर्सी का प्रचलन नहीं था । बैठने के लिए मोटे-मोटे गद्दे (नेपाली में चकती) की आसनी बनी होती जिसमें सफ़ेद या हल्के रंग के गिलाफ चढ़े होते जिन्हें हर हफ्ते धोया जाता ।रसोई की लिपाई पुताई हर रोज़ होती थी। घर में सबसे नीचे झिरी होती जिसका उपयोग स्टोर रूम या गाय आदि बांधने के लिए किया जाता। पहला तल्ला रहने सोने के लिए होता। रसोई सबसे उपर attic में होता।  लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता। सुबह सबेरे उठकर चूल्हा जला कर पीने का पानी उबलने के लिए बड़ी देग में चढ़ाया जाता। चाय का पानी चढ़ा कर दो बोरसी में आग सुलगा कर बूढ़ीमाई अपनी बोरसी ले कर बैठ जाती चाय के इंतज़ार में। माँ के रसोई में पहुँचने तक चाय का पानी उबल चुका होता। पीने का पानी भी उबल चुका होता । उसे हटा कर दाल का अदहन चढ़ा दिया जाता। दो आँख वाले चूल्हे पर एक ओर दाल उबलता होता और दूसरे पर चाय बनती, दूध गरम होता ब्रेड सेंका जाता। नाश्ता निपटने तक सब्जी बनने लगती फिर चावल चढ़ा दिया जाता। नाश्ता कर हम पढ़ने बैठ जाते। दस बजे स्कूल और ऑफिस जाने के लिए खाना बन कर तैय्यार हो जाता। बूढ़ी माई का काम माँ के साथ चलता रहता। दो मंजिले (नेपाली: ब्यूंगल, English Attic) पर रसोई घर था और नल नीचे आँगन में था। वहाँ से पानी भर लाना, मसाला पीसना, सब्जी धोना सभी काम चलता रहता। हम सभी चाय, दूध पी लेते तो केतली बूढ़ी माई को थमा दिया जाता । शुरू-शुरू में माँ सबके साथ-साथ बूढ़ी माई को भी उसके गिलास में चाय दिया करती और दोपहर का खाना भी थाल में निकाल कर पकड़ा देती । लेकिन हमारी अनोखी बूढ़ीमाई असंतुष्ट ! दिन भर बड़बड़ाती रहती । चाय भी नहीं मिला या खाना नहीं खाया या चाय ठीक नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने की हड़बड़ी में किसी दिन माँ ने केतली ही पकड़ा दी और उसदिन उसकी संतुष्टि और मस्कुराहट देख कर माँ को समझ में आया। भले ही किसी दिन केतली में बची चाय से उसका गिलास आधा ही भरता, माँ की और चाय बना कर देने की पेशकश बड़ी बेफिक्री से ठुकरा देती, यह कहकर की ज़्यादा चाय नहीं पीनी चाहिए. खाने के मामले में भी यही बात थी । खाने के बाद रसोई बुढ़ीमाई के हवाले हो जाता। सब्जी धोने वाले कठौती में खाना परोसकर आनंद ले कर खाते देखना हम बच्चों के लिए कौतुक भरा रोचक दृश्य था। कभी कभी वह सब्जी परोसने वाली बड़ी चम्मच को ही अपने खाने का चम्मच बना लेती।
शाम के नाश्ते में कभी हलुवा, खीर या कुछ नया बनता तो हम बच्चे कुछ ज्यादा ही खा लेते। माँ हम सबका हिस्सा निकाल कर बुढ़ीमाई का हिस्सा उसी बर्तन में छोड़ देती । हम और मांगते तो माँ को मना करना पड़ता । तब बुढ़ीमाई अपना हिस्सा हमें बाँट देती और कहती बच्चों को अतृप्त रख कर मैं कैसे खा पांउगी। हमें भी यह "ज्ञान" हो गया कि बुढ़ीमाई को स्वादिष्ट चीजों की जरूरत नहीं ! क्योंकि माँ नाश्ते में कुछ चूड़ा, मुढ़ी या ब्रेड दे देती । तो एकदिन हमनें कड़ाही में छोड़े बुढ़ीमाई का हिस्सा आपस में बाँट लिया। उस दिन उसकी असंतुष्ट बड़बड़ाहट से माँ को घटना का पता चला। सबसे बड़ी होने के चलते मुझे डांट के साथ हिदायत मिली। पर इसमें भी सबसे ज्यादा दुःख बुढ़ीमाई को ही हुआ कि उसके कारण हमें डाँट पड़ रही है।
घर में अक्सर मेहमान पशुपति दर्शन के लिए आते ही रहते। सप्ताह भर रह कर काठमाण्डू भ्रमण कर वापस लौटते। सुबह शाम बर्तनों का ढ़ेर लग ही जाता पर उसका चेहरा मलिन न होता। "चेहरे पर शिकन  नहीं पड़ती" ऐसा इसलिए नहीं कहा क्योंकि इतनी झुर्रीयों और शिकन के बीच कोइ "एक शिकन" कैसे पता चलता। लेकिन कुकर के मामले में ऐसा न था। कुकर के अन्दर मुड़े किनारे के कारण शायद धोने में दिक्कत होती या पानी ज्यादा लगता जो उसे नीचे से ढ़ोकर लाना होता।बड़बड़ाती रहती 'कितना कहती हूँ इस लामपुच्छ्रे (लम्बी पूंछ ) को मत निकालो पर कौन सुने।

किशोर के जन्म के समय आई बुढ़ीमाई मेरे छोटे भाई अनिल और गुड्डू के जन्म की साक्षी बनी। हम पांच भाई बहनों के रोज़ के हड़कंप को कितनी सरलता से संभाल लेती। कभी हम कुत्ते के पिल्लों को उठा लाते एक दो नहीं चार-चार । फिर माँ के डांटने पर एक को रख कर बांकी वापस रख आना पड़ता या कोई लेने वाला हुआ तो बड़ी अहसान और हिदायत के साथ दिया जाता। पिल्लों में से एक का चुनाव बड़ी समझदारी से किया जाता। हम भाई बहन बारी-बारी से पिल्लों को दोनों कान से पकड़ कर उठाते और झुलाते। जो पिल्ला कूँ-कूँ करता वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाता। चार दिनों तक कुत्ते की पावरिश हम बच्चे बड़ी जिम्मेदारी से उठाते, खाना पानी का ध्यान रखा जाता पर उसकी गन्दगी साफ़ करने का काम तो बूढी माई को ही करना पड़ता। सप्ताह दस दिनों के बाद हमारा ध्यान शायद मुर्गी के चूज़ों पर चला जाता और हम उसे अपने पॉकेट खर्च को बचा खरीद कर ले आते। उनका भी यही हाल होता। फिर सारी जिम्मेदारी बुढ़ी माई की ही होती। शाम को सभी चूज़ों को गिनकर दरबे में बंद करती सुबह दरबे से निकाल कर दाना पानी देने से लेकर पूरे आँगन में फैलाये गन्दगी दिन में दो बार साफ़ करने तक। लेकिन सभी समय बुदबुदाती बड़बड़ाती रहती।
कुत्ते की गन्दगी साफ़ करते वक्त "मरता भी नहीं" उसे ऐसा बड़बड़ाते हमने कई बार सुना था। वह कुत्ता था भी बहुत असभ्य। बालकनी (बार्दली) के लोहे के छड़ के बीच से गर्दन बहार निकाल कर हर आने जाने वाले पर पूरी ताकत से भौंकता रहता। कभी-कभी इतना उत्तेजित हो जाता लगता ऊपर से ही कूद पड़ेगा। कई बार रास्ते चलने वाले बच्चों के पीछे भी पड़ गया था तब से उसे बांध कर ही रखते। जिन बच्चों को दौड़ाया था वे बदला लेने के लिए उसे गुलेल से पत्थर मारते। एक दिन एक पत्थर ने उसकी आंख ले ली। उस दिन हमने बूढी माई को रोते देखा ! दूसरी बार कुछ सालों बाद, वह कुत्ता जिसका नाम ही हमने डेंजर रखा था अचानक गायब हो गया। अक्सर वह गायब होने पर एक दो दिन में वापस भी आ जाता। पर इस बार नहीं लौटा। पता नहीं कहाँ चला गया। हमने गली मोहल्ले में पूछा, खोजा पर नहीं मिला। मोहल्ले वालों ने तो रहत की साँस ली होगी। पर बूढ़ी माई के चेहरे की वह मुस्कान उन दिनों गायब हो गई। उठते बैठते बड़बड़ाती श्राप देती रहती। उसके ख्याल से किसी कुत्ता पीड़ित ने ही उसे मार डाला होगा सो उस अदृश्य हत्यारे को कोसती रहती। जब हमने याद दिलाया कि उसके मरने का मनता तो वह खुद ही करती रहती थी तो बूढी माई आहत हो गयी। मरने का मतलब "मर जाना नहीं होता" उसका कहना था। मनुष्य का जीवन बड़े पुण्य के बाद मिलता है इसलिए जीवन को भगवान का आशीर्वाद मान कर ज़्यादा से ज़्यादा सार्थक बनाना चाहिए. किसी ज्ञानी पंडित की तरह उसके विचार सुनकर माँ भी आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगी थी। पढ़ने के समय अगर हम कहीं और दिख जाते तो तुरंत टोक देती। उसको अपने नहीं पढ़ पाने का अफ़सोस शायद था। जिसको पढ़ने लिखने का मौका मिला उसे उसका महत्त्व नहीं होता उसकी डांट के शब्द होते। माँ के डांट से भी हमें बचाती रहती।
लोगो से ज़्यादा मोह माया नहीं रखना चाहिए, ऐसा उसका विचार था। पर आचरण में उलट ही दिखता । शब्दों में वह अपनी भावना ब्यक्त नहीं करती थी पर उसकी खुशी और सुख दुःख की अभिव्यक्ति उसके चेहरे पर साफ़ दिख जाती । एक वाकया हमें याद है जब मैं अपने दो साल की बिटिया को लेकर काठमांडू आई हुई थी। जनवरी की जमा देने वाली सुबह। हम सब चाय पीने रसोई घर पहुँचे। बूढी माई भी सभी काम निपटा कर एक बोरसी लिए ठिठुरती उंगलियों को गरमाने में लगी थी। मेरी बिटिया सानु मेरा हाथ छोड़कर बूढी माई के सामने खड़ी हो गयी। बूढी माई ने बोरसी दूर सरका दी। तब तक सानु उसका शाल सामने से हटा कर उसकी गोद में बैठ गयी और शाल से अपने हाथ पैर ढ़क लिए। उस दिन बूढी माई के चेहरे पर जो तृप्ति की मुस्कान मैंने देखी आज भी मेरे आँखो के सामने है। उस मुस्कान में क्या था ? इस घर को अपना समझने की तृप्ति जिसका मूल्य इस बच्ची ने चुका दिया।
अभी भी बहुत कुछ हैं हमारी अपनी बूढी माई के याद करने के लिए । फिर कभी।


Monday, May 4, 2020

देर से ही सही “धन्यवाद” ! -सरोज सिन्हा


हमारे प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा किये गए थाली, ताली बजाने और दिया जलाने के आह्वान ने मुझे भी कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। कोरोना कहर के बीच अपनी परवाह कर जनता कि सेवा करने वाले डॉक्टर, अन्य स्वस्थ्य कर्मी, सफाई कर्मचारी, पुलिस, सुरक्षा कर्मी, सेना के जवान, बैंक कर्मी इन सब को धन्यवाद कहने का यह अनोखा तरीका मोदी जी ही सोच सकते है। यह सभी लोग हमारी सहायता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पहले से ही करते आये है। मॉल, सिनेमाघर, अस्पताल या किसी रिहायशी  जगह के सुरक्षाकर्मी जब हमारे  लिए दरवाज़ा खोल कर सलाम करता है,  शायद ही लोगों ने धन्यवाद सही, मुस्करा कर ही उनकी काम को सराहा हो।  उनकी तरफ देखने का भी कष्ट नहीं उठाते। हवाई यात्रा में नम्रता से दुहरी हुई जाती एयर होस्टेस द्वारा हमारे  स्वागत में किये नमस्कार का जवाब भी कुछ ही लोग देते है। हमें लगता है यह तो उनके  काम का एक हिस्सा भर  है।

जीवन यात्रा में भी कई लोग मिल जाते है जो हमारे जीवन में अपनी तरह से प्रभाव डालते है। उस समय उनकी की गई मदद साधारण-सी लगती है। मैं भी अतीत में मुड़ कर देखती हूँ तो कई लोग याद आते है जिन्होंने हमारे लिए कभी न कभी कुछ किया था। आज मैं उनको धन्यवाद देना चाहती हूँ। कभी-कभी तो एकदम अनजान अपरिचित लोगों ने भी सही समय पर सहायता या सहयोग दिया है । ऐसी ही तक़रीबन पचास साल पुरानी एक घटना अभी याद आ रही है। जब मैं  काठमांडू के एक कॉलेज में पढ़ रही थी । मैं और मेरी एक सहेली दोपहर तीन बजे के करीब कॉलेज से घर लौट रही थी। रास्ता बनाने के लिए एक तरफ मिट्टी का ढेर लगा था और दूसरी तरफ एक 5-6 फ़ीट गहरा और 20 फ़ीट चौड़ा और कुछ ज़्यादा ही लम्बा गड्ढा था। बारिश के दिन थे और इस कारण वह गड्ढा कीचड़-कीचड़ था और दलदल बना हुआ था। उसी गड्ढे के बगल से निकल कर आगे रोड तक जाने का ये हमारा रोज़ का रास्ता था, उन दिनों वहां पूरा खेत था जिसके बीच से एक पतली गली जाती थी । किनारे एक काम चलाऊ गेराज भी था ।  घूम कर पक्के रास्ते  से जाने पर दो ढाई किलोमीटर का चक्कर पड़ जाता था । उस दिन कुछ दूर पर कुछ गायें चर रही थी और उनके बीच एक हठ्ठाकठ्ठा साढ़ भी था । लोग फिर भी आ जा रहे थे । हमें खतरे का कोई अहसास नहीं हुआ क्योंकि वे खासी दूरी पर थे और लोग आ जा भी रहे थे । पर जैसे ही हम गढ्ढे के किनारे किनारे कुछ दूर गए होंगे हमने देखा की वह सांढ़ फुंफकारते हुए हमारी ओर ही चला आ रहा था हम दोनों घबरा कर कोई और चारा न देख कर उसी  गढ्ढे़ में उतर गए । आस पास के लोगों ने फिर साढ़ को खदेड़ दिया  खदेड़ने वालों में  गेराज के मैकेनिक भी थे  इस  भगदड़ और  आपाधापी में मैं कुछ ज्यादा ही नीचे उतर गयी थी । मेरे दोनों पैर कीचड़ में धंस गए थे । एक पैर किसी तरह निकल कर एक सूखी  जगह रख कर मैंने दूसरे पैर भी किसी तरह निकला पर चप्पल तो वहीं अटक गयी । कीचड तबतक बराबर भी हो गया था । मैं पैर कीचड में डाल कर चप्पल निकालने की कोशिश करने लगी पर नाकाम रही। गढ्ढे के ऊपर नज़र गई तो देखा दस पंद्रह लोग इकठ्ठा हो चुके थे। दशहत और शर्म से मानों कलेजा बाहर आने को बेताब हो रहा था। मैंने दूसरा चप्पल भी वहीं छोड़ा और बाहर निकल कर नंगे पाँव ही घर की  ओर  चल दिए।

अगले दिन फिर उसी जगह वही साढ़ नज़र आया हमें जाने की हिम्मत पडी और हम लम्बे रास्ते  की ओर बढ़े ही थे की कुछ लड़के हाथों में लकड़ी लिए हुए दौड़े आये और उन्होंने उन गायों औ उस साढ़ को वहां से खदेड़ दिया इसी बीच एक लड़का मेरी तरफ आया और एक थैला  मेरे हाथों में थमा कर भाग गया थैले में अख़बार में लिपटे सामान को खोलने पर मेरे दोनों चप्पल निकले, धुले, सुखाये और पॉलिश किये हुए मैं कभी नहीं जान पायी वह कौन था   शायद गेराज में काम करने वालों में से कोई था

आज मैं सोच रही थी हमारे पास सांढ से बचने के कोई और ऑप्शन थे क्या? नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल  में एक प्रोग्राम आता है “Do or Die” जिसमें ऐसे ही कठिन परिस्थिति में बचने के तीन ऑप्शन दिए जाते है और एक ही सही होता है जैसे A) हम या तो पीछे मुड़ कर सांढ से ज्यादा तेज़ भाग लेते । Bअपने शाल को मेटाडोर की तरह प्रयोग कर के सांढ़ से पीछा छुड़ा लेते । C) गड्ढे में उतर जाते निश्चित रूप से नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल भी ये ही  बताता की C) ऑप्शन ही सही था   हा हा हा


दूसरी घटना कॉलेज के शुरुआती दिनों के है । कॉलेज का ड्रेस था खादी की गेरुआ + लाल, और कथ्थई बॉर्डर वाली साड़ी । साड़ी मोटी और भारी थी और हम थे नवसिखिया । कभी साड़ी एक बार में ही मनचाहे तरीके से लिपट जाती और कभी अड़ियल टट्टू की तरह ज़िद पर अड़ जाती तो बार बार कोशिश करने पर भी ठीक से पहन न पाते ।  इसी चक्कर में अक्सर कॉलेज के लिए देर हो जाती । माँ, चाची को देख कर बड़ा आश्चर्य होता की साड़ी पहन कर हर काम कैसे आसानी से कर लेती हैं। साड़ी तो पहन लेते पर  सड़क तक आते आते साड़ी पैरों में लिपटने लगती । छोटे छोटे कदम चलने पड़ते ।  फिल्म "दीवाना मस्ताना" में गोविंदा के बेबी स्टेप देख कर बरबस अपनी स्थिति याद आ गयी थी। इसके  चलते बस स्टॉप पहुंचने में देर हो जाती । दूर से बस दिख तो जाती पर दौड़ना मुश्किल होता । पूरी ताकत लगा कर चलते पर तेज़ चल  न पाते । बिलकुल निराश हो जाती। सभी यात्री चढ़ जाते और बस अभी खुली की तभी खुली की स्थिति में आ जाती। अभी भी हम दूर ही होते । लेकिन यदि बस कंडक्टर ने हमें देख लिया होता तो २-३ मिनट बस को रोके रखता ताकि हम पहुंच जाए ।  बस कॉलेज गेट के सामने से ही गुजरती पर बस स्टॉप आधा किलोमीटर आगे था या आधा किलोमीटर पीछे । साड़ी पहन कर हमारा इतना चल लेना भी बड़ा काम था । अक्सर कंडक्टर हमें पहले स्टॉप पर उतरने से रोक देता और कॉलेज गेट के सामने बस रोक कर हमें उतर देता ।   मैं आज भी उन बस ड्राइवर और कंडकटर का कृतज्ञ हूँ ।

हमारे घर की एक सदस्य बुढ़ी माई  भी जिन्होनें  लगभग पच्चीस वर्ष तक हमारे साथ रह कर सबकी सेवा की भी धन्याद की पात्र  है । उन्होंने हम बच्चों की अनेकों  ज्यादतियां बड़बड़ाते कोसते हुए ही सही बर्दास्त किया । कभी हम कुत्ते का बच्चे उठा  ले आते या मुर्गी के चूज़े । हमरी जि़म्मेदारी तो बस उनसे खेलने की होती । उन छोटे छोटे चूज़ों और पिल्लों की गन्दगी सांफ करना । समय पर दड़बे से बहार करना, या फिर बंद करना बुढ़ी माई ही करती ।  बुढ़ी माई की कथा कहने लगू तो यह ब्लॉग काफी लम्बा हो जाएगा तो अगली बार फुर्सत से ।

Saturday, April 25, 2020

तीन पहिये वाली साईकिल - सरोज सिन्हा

उम्मीद करती हूँ मेरी पहली कहानी आपको पसंद आई होगी। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरे पति एक सेक्रेटरी और टाइपिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं लेकिन मैं इसका अहसान क्यों मानूं ? आखिर मैं भी तो पिछले 47 वर्ष से यही करती आ रही हूँ। लेकिन Editing और Proof reading के लिए मैं उनको धन्यवाद देती हूँ।

इस बार की कहानी भी बिराटनगर में हमारे प्रवास की ही है जहां माँ, बाबूजी, मै और मेरे 2 छोटे भाई बिमल और किशोर एक किराये के मकान मे रह रहे थे।  जैसा मै पिछली बार बता चुकी हूँ दो तल्ला मकान में एक लम्बा और चैाड़ा बरामदा था उससे लगे कुछ कमरे थे जिसमें कई किरायेदार रहते थे। चारों ओर थेथर और अन्य कंटीली झाड़ियाँ थी। उपर के तल्ले में भी एक कप्तान साहब अपनी पत्नी के साथ रहते थे। हर रात दिन भर के खर्च का हिसाब करते होंगें क्योंकि हम हर रात चिरपरिचित नेपाली सम्बोधन अवश्य ही सुनते थे "सुन्नु भौ दश पैसा को हिसाब मिलेन" (सुनते हो दस पैसा का हिसाब नहीं मिल रहा)।जिस दिन यह सुनने को नहीं मिलता तो सुबह वह चर्चा का विषय हो जाता।

अब मै असली वाकये पर आती हूँ। हम सभी बच्चे बरामदे में ही खेला करते। बरामदा ऊँचा था। हम कूदकर  नीचे चले तो जाते पर चढ़ने के लिए मदद की जरूरत पड़ती थी। सीढ़ियां झाड़ियों के तरफ थी जिधर सांप होने का खतरा रहता था। मकान मालकिन अपने दूसरे पति के साथ  बगल के दूसरे मकान में रहती थी। मकान उसके स्व० पहले पति का था। पहले पति से उसे एक बेटा था और दूसरे पति से एक बेटी थी। बेटे का नाम था लंगड़ू । अच्छा नाम भी होगा पर उसकी माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी। हम भी लंगड़ूू ही कहते। वैसे वह लंगड़ा तो बिल्कुल नहीं था। मुझसे एकाध साल बड़ा होगा। दुबला पतला और लम्बा। हमेशा अपने साईज से बड़ा बुश्शर्ट पहने रहता। ढ़ीला ढ़ाला निकर। शर्ट आधी बाहर आधी अन्दर। शर्ट के बटन भी एक दो टूटे रहते। बाल बिखरे कभी बहुत बड़े तो कभी एकदम छोटे छंटे हुए लगभग मुंड़े हुए। सभी बच्चों में सबसे बेतरतीब। उसकी छोटी बहन लगभग तीन वर्ष की थी। उससे बिल्कुल अलग। हर समय सजी सुन्दर फ्रॉक पहने, बालों में रिबन से बंधी दो चोटियाँ। आँखों में काजल और पैरों में जूते या चप्पल भी जबकी लंगड़ू को हमने हमेशा नंगे पैर ही देखा था। यह वाकया उन्हीं भाई बहनों से सम्बंधित है। उनके पास एक तीन पहियों वाली साईकिल थी । साईकिल पर बहन को बैठा कर लंगड़ू ठेलते हुए बारामदे के कई चक्कर लगाता था। साईकिल पर बैठने के लिए बच्चे कई प्रकार के उपहार से लंगड़ू को मनाने की चेष्टा करते। लेमनचूस से लेकर बॉल तक देने को तैय्यार रहते पर मज़ाल है जो वह किसीको साईकिल पर बैठने देता। कभी बहुत उदारता दिखाता तो पीछे लगे डण्डे पर एक पैर रख कर ठेलने ईजाजत दे देता। वह भी हर किसी को नहीं। इसी कारण सभी बच्चे उसे अपना दुश्मन ही समझते थे। हमने अक्सर उसे अपनी माँ से डांट और मार खाते ही देखा था । बहन की गलती या रोने पर भी मार उसे ही पड़ती।
एक दिन हमें वह साईकिल बिल्कुल  लावारिस बरामदे में मिल गया। गर्मियों के दिन में हमें बाहर निकलने कि इज़ाजत नहीं थी। और हम शाम को ही बाहर निकलते थे। साईकिल देख कर मेरी और मेरे छोटे भाई बिमल की बाँछें खिल गई। ईधर उधर देखा कोई नज़र नहीं आया तो हमने साईकिल पर कब्जा कर लिया। बिमल बैठ गया और मै धक्का लगाने लगी। अभी बरामदे का एक फेरा लगा कर लौटे ही थे कि न जाने कहां से लंगड़ू नामूदार (प्रकट) हो गया। हमारा इरादा था कि जल्द से जल्द 2-4 फेरे लगा लेते। अगली बारी मेरे बैठने और बिमल के धक्का लगाने की थी। अपने इरादे पर पानी फिरता देख हम फौरन हमला करने के मूड में आ गए। मैं उसे एक तरफ से पकड़ कर पीछे ढ़केलने लगी तब तक बिमल भी आ गया और उसने उसे दूसरे तरफ से पकड़ा और हम उसे बरामदे के किनारे तक ले आए और नीचे उतरने पर मज़बूर कर दिया। उपर चढ़ना उसके बस का नहीं था क्योंकि उसका एक हाथ टेढ़ा था। बचपन में हड्डी टूटने पर इलाज नहीं कराने से हड्डी टेढ़ी जुड़ गई थी। घूम कर आना झाड़ियों के चलते खतरनाक था। अक्सर उसमें सांप दिख जाते। वह चढ़ने की कोशिश करता और हम उसका हाथ हटा देते। फिर तो वह चिल्लाने लगा और जोर जोर से बहन को बुलाने लगा। खैर उसकी माँ या बहन तो नहीं आई पर शोर सुन कर बाबूजी जरूर कमरे से बाहर आ गए। समझ तो गए ही होंगे कि हमने ही गिराया है पर हमें महसूस नहीं होने दिया और हमसे ही उसे ऊपर खिंचवाया और दोस्ती करवायी। बारी बारी से हाथ मिलवाया। वह साईकिल ले कर चलता बना । दोस्ती तो क्या होती वह और भी सावधान हो गया और उसने फिर कभी उस ट्राई साईकिल को अकेला नहीं छोड़ा।
मेरी बिटिया लाली बुआ के साथ (भिन्न  साईकिल पर)
इस तरह मेरी ट्राई साईकिल पर बैठने की हसरत हसरत ही रह गई। पर यह कहना कि यह हसरत कभी पूरी नहीं हुई गलत होंगा। उम्र बढ़ने पर ट्राई साईकिल चलाने की उम्र तो नहीं रही। पर जब मेरी बेटी 2 साल की थी तो उसके लिए एक अद्भुत  ट्राई साईकिल आई। बिल्कुल मोटर साईकिल की तरह । उसकी सीट भी मोटर साईकिल की तरह लम्बी थी। ऐसी कि एक के पीछ एक दो बच्चे आराम से बैठ जाते। हमारा और अन्य पड़ोसियों के क्वार्टर एक common कॉरिडोर से लगे थे। और शाम को हम पड़ोसियों का जमावड़ा किसीके न किसीके यहां लगता था। अक्सर कुर्सियाँ या मोढ़े कम पड़ जाते । बिटिया का साईकिल तब बैठने के काम आता और हमें अपने बचपन की हसरत पूरी होती महसूस होती। बिटिया साईकिल चलाते चलाते कॉरिडोर में कहीं न कहीं छोड़ आती और पड़ोसी उसे हमारे दरवाजे के तक चला कर पहुंचा जाते। वैसी मोटर साईकिल जैसी ट्राई साईकिल फिर कभी नहीं देखी। अनोखी थी वह साईकिल ।