Sunday, June 14, 2020

एक यादगार यात्रा-सरोज सिन्हा

यात्राएं ब्लॉग के लिए बहुत ही बढ़िया विषय है। हर  यात्रा की कुछ स्मृतियाँ शेष रह ही जाती है। अंग्रेजी में ऐसे ब्लाग को travelogue भी कह सकते है। हिन्दी में बड़ा ही फीका शब्द है "यात्रा संस्मरण"! शब्द कैसा भी हो और यात्रा का कैसा भी अनुभव रहा हो वह बार बार याद आता है जिन  बातों पर कभी दु:खी हुए थे उन्हीं बातों पर अब हँसी आती है। नीचे लिखा वृतांत मै अपने छोटे भाई किशोर के अनुरोध पर लिख रही हूँ।

एक यात्रा में मैं अपना नया चप्पल खो चुकी हूँ। बाबूजी कलकत्ता से लाये थे लाल और नील रंग की सैंडिल। पहली बार पहन कर यात्रा कर रही थी। बड़े एहतियात से मैंने चप्पल सीट के नीचे रखकर सीट पर बैठ गई। खिड़की बंद कर दिया गया था क्योकि मेरा छोटा भाई किशोर पानी पी कर गिलास खिड़की से बाहर गिराने की चेष्टा कर चुका था। २ वर्ष के किशोर की चम्मच, छोटे प्लेट आदि रसोई की खिड़की से बाहर गिराने की आदत से हम लोग परिचित थे। काफी देर तक सभी यात्री बड़ी होशियारी से उस पर नज़र रखे थे। फिर कुछ असावधान हो गए होंगे। किसी ने कुछ कारणवश खिड़की का शटर ऊपर उठाया और किशोर ने अपनी फुर्ती दिखाई और बिजली की गति से एक चप्पल उठाया और खिड़की के बाहर। खिड़की खोलने वाले ने खिड़की बंद करने की तत्परता दिखाई पर उससे कुछ देर हो गई थी। अब बाबूजी ने दूसरी चप्पल उठाई और उसे भी बाहर फेंक दिया। सभी यात्री भौचक रह गए। एक चप्पल तो किसी के काम का नहीं बाहर किसी को दोनों मिल गए तो किसीके काम आ जायेगा। बाबूजी का कहना था।और मैं? मै न रो पा रही थी न इतने लोगों के बीच किशोर के कान खींच सकती थी।

इस यात्रा के बहुत वर्षो बाद की एक घटना याद आ रही है। मेरी नन्हीं सी बिटिया पड़ोस के किसी बच्चे के लाल चप्पल देखने के बाद लाल चप्पल लाने के लिए अपने पिता से जिद नहीं सिर्फ कहा भर था।  और वे रोज शाम को लाना भूल जा रहे थे। दो दिन धैर्य रखने के बाद तीसरे दिन पिता को खाली हाथ आते देख उसकी आँखें डब डबा आई । रोनी आवाज में उसने कहा था "पापा मेरा लाल लाल चप्पल?" पिता को उलटे पैर लौट कर उसी समय लाल चप्पल लाने को मजबूर होना पड़ा था। तब मुझे बरबस यह चप्पल याद हो आया था जिसे मेरे पिता ने बिना मांगे ही लाया था।

स्टीम इंजन वाली ट्रेन जब छुक छुक चलती तो खिड़की के पास बैठने के लिए बच्चों में धक्का मुक्की हाथा पाई भी हो जाती। जिसे खिड़की वाली सीट मिल जाती वह ऐसी मुस्कान प्रतिद्वंदी की ओर फेंकता मानों स्वर्ण पदक मिल गया हो । पर अगले दस मिनट के अन्दर कोयले के कण के कारण सारा मजा किरकिरा हो जाता । आँखें बंद कर सोने का आदेश माँ से मिलता और सो कर उठो तो सच में कोयला आंसुओ में बह चुका होता।अक्सर यात्रा गर्मी में होती और मंजिल तक पहुंचते पहुंचते पसीने में और कोयले के लेप के कारण बच्चे बदरंग हो चुके होते। रेल यात्रा का सबसे बड़ा आकर्षण था हर स्टेशन पर आने वाले खोमचे वाले। झालमुढ़ी, चिनिया बदाम (मूंगफली), राम दाना का लाई,  चना घुघनी, खट्टी मीठी लेमन चूस वाले। चनाजोर गरमवाला बड़े मजेदार गानों के साथ "मेरा चना बना है आला" अपना माल बेचता। सास बहू के झगड़े का इस रोचक अंदाज से वर्णन कर रहा होता कि लोग बात करना भूल जाते । जब लोग उसकी कविता या गीत मनोयोग से सुन रहे होते, तभी वह गाना बंंद कर देता। जब तक ४-५ यात्री उसके स्वादिष्ट चनाजोर गरम के कोन न खरीद लेते उसका गीत आगे न बढ़ता। यदि बोहनी अच्छी होती तो सास बहू का झगड़ा रोचक अन्दाज में लम्बा चलता।

पर यदि यात्री बिना खर्च किए मजा लेने को अड़ जाते तो वह सास बहू का समझौता करवा कर आगे बढ़ जाता। बचपन कि उन यात्राओं में अनेक रोचक अरोचक वाकयो से पाला पड़ा। अब तो वातानुकूलित डब्बे में पहले से आरक्षित बर्थ पर आरामदायक यात्रा करते हुए भी उन अनोखे बोल और अनूठे आवाज वाले खोमचे वालों का आभाव यात्रा के मनोरंजन को कम कर देता है ।और यदि आप प्रथम श्रेणी मे यात्रा कर रहे हो तो सह यात्रियों से अक्सर बिना कुछ कहे सुने पूरी यात्रा समाप्त हो जाती है।
ऐसे भी ज्यादातर यात्री पूरा समय मोबाइल मे सर्फिन्ग करते हुए या विडियो या गाना का आनन्द लेते गुजार देते है। मै भी किताबों का सहारा ले कर समय काट लेती हूँ। आज बस इतना ही ।

Wednesday, June 10, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी: तीसरा भाग। - सरोज सिन्हा

यात्रा या यात्रा करने के साधन याद करूं तो अनेक रोचक प्रसंग याद आते हैं । बचपन से ही काफी सारी स्मरणीय यात्राएं करने का संयोग प्राप्त हुआ है। दादीगृह दरभगां है, बाबूजी विराट नगर में नौकरी पर थे और नानीगृह काठमाण्डू होने से रेलगाड़ी और बस से काफी यात्राएं करनी पड़ती थी। दरभंगा से विराटनगर की यात्रा के बीच ट्रेन भी बदलनी पड़ती। स्टेशन पहुंचते ही यात्रियों के बीच सूचनाओं का आदान प्रदान शुरु हो जाता। "आगे वाले या पीछे वाले कुछ डब्बे रास्ते में कट कर कहीं और चले जाएगे" या "आगे वाले डब्बे में भीड़ कम होगी"। यह तब का सर्व सुलभ गूगल हुआ करता था। अक्सर लोग अपनी चिन्ताओं और शंकाओं का समाधान इन सूचनाओं के बल पर कर लेते। सामान भी उसी जगह रखवाया जाता जिस जगह इच्छित डब्बे के आने की संभावना होती। पर लाख चाहने पर भी ऐसा   इच्छित डब्बा या तो आगे जा कर रुकता या पीछे ही रह जाता।

मीटर गेज या छोटी लाईन की पैसेंजर ट्रेनों में तब खिड़की में रॉड नहीं हुआ करता था।भीड़ इतनी की हम बच्चे सहम जाते। हमें याद नहीं कि हमने बचपन में कभी दरवाजे से डब्बे में प्रवेश किया हो। गाड़ी के प्लेटफार्म में प्रवेश करते ही यात्री या उन्हें छोड़ने आए लोग हाथ में गमछा लिए दौड़ पड़ते और खिड़की से ही उतरने वाले यात्री के सीट पर गमछा, रुमाल आदि रख दिया जाता। कभी कभी गमछा सही जगह रखने के लिए अंदर बैठे यत्रियों की मदद भी ली जाती। जैसे ही गाड़ी रुकती एक एक कर बच्चों को खिड़की से अन्दर ट्रान्सफर कर दिया जाता । कुछ सामान भी खिड़की के रास्ते अंदर आ जाता और फिर बड़े लोग  माँ, बाबूजी भीड़ के बीच जगह बनाते हुए अंदर पहुँचते। सामान भी कम नहीं होता । टीन का बक्सा और होल्डाल तो अत्यावश्यक चीज़ होती थी। साथ में थैला वैगेरह भी होता। पानी का लोटा, गिलास, खाने पीने का सामानों से भरा बाँस या बेंत की बनी टोकरी भी होती। अंदर सीट पर विराजमान यात्रियों के लिए नए आये यात्री तो घुसपैठिये होते। कुछ तू-तू मैं-मैं भी होती पर १५-२० मिनट में भाईचारा स्थापित हो जाता। नए यात्रियों के टिकने भर की जगह निकल आती। बच्चों के बैठने की व्यवस्था भी हो जाती। एक दूसरे से नाम पता कहाँ जाना है वैगरह पूछा जाता और कभी-कभार जान पहचान भी निकल आती।

दरभंगा रेलवे स्टेशन
स्टेशन पर गाड़ी रुकने के पहले ही चापाकल देख लिया जाता। गाड़ी रुकते ही लोटा लिए शीतल जल के लिए लोग  नजदीक वाले या जहाँ भीड़ कम हो उस नल की ओर दौड़ जाते।   कभी कभी पहुंचने पर पता चलता की भीड़ जिस नल पर कम है वहाँ पानी भी कम आ रहा है । मर्फी'ज लॉ हर जगह लागु होता ही है। बाबूजी के पास एक फौजी फेल्ट का कवर लगा एक टम्बलर था जिसमें पानी काफी समय तक ठंडा रहता। उन्हीं यात्राओं के दौरान एक बार चापाकल को डब्बे के बिलकुल सामने देख माँ ने हमारी 'बूढ़ीमाई' (मेरे पहले के ब्लॉग देखे) को पानी लाने का आदेश दिया। 'बूढ़ीमाई'  हम लोग के साथ ही यात्रा कर रही थी। ट्रेन वहाँ काफी देर रुकती थी। बूढ़ीमाई नीचे उतरी और अभी पानी भर ही रही थी की ट्रेन चल पड़ी। जब तक दौड़ी, गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली। असल में ट्रेन के कुछ डिब्बे वहाँ कटते थे जिसके लिए ट्रेन को यार्ड में जाना था।
गाड़ी ने गति पकड़ ली तो बाबूजी भी उतर न सके लेकिन उन्हें पता था कि ट्रेन लौट कर उसी प्लेटफार्म पर आएंगी सो वे ज़्यादा चिंतित नहीं थे। पर आधे घंटे बाद जब ट्रेन वापस आई और बाबूजी नीचे उतरे तो चकरा गए, क्योकि चापाकल के पास २०-२५ लोगों की भीड़ इकठ्ठा थी। घबराये बाबूजी वहाँ पहुँचे तो भीड़ के बीच बूढ़ीमाई को देख कर उनकी जान में जान आई । जो भीड़ अब तक बूढ़ीमाई को मुखातिब थी अब बाबूजी को प्रश्नो से बींधने लगी। कैसे मालिक हैं? अजीब लोग हैं इत्यादि। बाबूजी जल्दी पानी का लोटा और बूढ़ीमाई दोनों को लेकर ट्रेन पर सवार हो गए। हुआ यह कि गाड़ी में चढ़ने की चेष्टा में असफल होते ही बूढ़ीमाई पछाड़ खा कर गिर पड़ी और बिलख बिलख कर रोने लगी। लोगों ने समझाने की कोशिश की कि ट्रेन वापस आ जाएगी पर बूढ़ीमाई का क्रंदन कम न हुआ। वह उनके सभी सवाल जैसे  "मालिक का नाम क्या हैं?" " कहाँ जाना है?" " कहाँ से आ रही हो?" का जवाब  नेपाली में दे रही थी "थाहा छैन"  यानी पता नहीं। अजनबी वेशभूषा, अजनबी भाषा लोगों को आकर्षित कर रही थी।  सबका मुफ्त मनोरंजन भी हो रहा था। इस घटना के बाद बूढीमाई को कभी किसी भी काम के लिए ट्रेन से नीचे नहीं भेजा गया और बूढ़ीमाई? वह तो गंतव्य तक ऐसे पालथी मार कर बैठ जाती कि हिलने  का नाम न लेती।नतीजन आठ नौ घंटे की यात्रा में उसके दोनों पैर सूज जाते थे। अनोखी थी हमारी बुढ़ीमाई। माँ का स्नेह और बच्चे की निश्चलता दोनों एक साथ थी उसमें।
बोतल बन्द पानी के बढ़ते उपयोग से नल के पानी पर निर्भरता कम हो गई है। अब विरले ही पीने के पानी के लिए लोटा ग्लास ले कर चलते है। बोतल बन्द पानी आसानी से ले जाया जा सकता है या प्लेटफार्म या ट्रेन के अन्दर खरीदा भी जा सकता है। सीट या बर्थ भी अब पहले ही आरक्षित कर सकते है । और तो और अब तो बिना रॉड वाले डब्बे भी नहीं होते। पर अब नई परेशानियों ने पुरानी की जगह ले ली है।आज बस इतना ही ।

कुछ और अनुभव फिर कभी ।