Saturday, April 25, 2020

तीन पहिये वाली साईकिल - सरोज सिन्हा

उम्मीद करती हूँ मेरी पहली कहानी आपको पसंद आई होगी। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरे पति एक सेक्रेटरी और टाइपिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं लेकिन मैं इसका अहसान क्यों मानूं ? आखिर मैं भी तो पिछले 47 वर्ष से यही करती आ रही हूँ। लेकिन Editing और Proof reading के लिए मैं उनको धन्यवाद देती हूँ।

इस बार की कहानी भी बिराटनगर में हमारे प्रवास की ही है जहां माँ, बाबूजी, मै और मेरे 2 छोटे भाई बिमल और किशोर एक किराये के मकान मे रह रहे थे।  जैसा मै पिछली बार बता चुकी हूँ दो तल्ला मकान में एक लम्बा और चैाड़ा बरामदा था उससे लगे कुछ कमरे थे जिसमें कई किरायेदार रहते थे। चारों ओर थेथर और अन्य कंटीली झाड़ियाँ थी। उपर के तल्ले में भी एक कप्तान साहब अपनी पत्नी के साथ रहते थे। हर रात दिन भर के खर्च का हिसाब करते होंगें क्योंकि हम हर रात चिरपरिचित नेपाली सम्बोधन अवश्य ही सुनते थे "सुन्नु भौ दश पैसा को हिसाब मिलेन" (सुनते हो दस पैसा का हिसाब नहीं मिल रहा)।जिस दिन यह सुनने को नहीं मिलता तो सुबह वह चर्चा का विषय हो जाता।

अब मै असली वाकये पर आती हूँ। हम सभी बच्चे बरामदे में ही खेला करते। बरामदा ऊँचा था। हम कूदकर  नीचे चले तो जाते पर चढ़ने के लिए मदद की जरूरत पड़ती थी। सीढ़ियां झाड़ियों के तरफ थी जिधर सांप होने का खतरा रहता था। मकान मालकिन अपने दूसरे पति के साथ  बगल के दूसरे मकान में रहती थी। मकान उसके स्व० पहले पति का था। पहले पति से उसे एक बेटा था और दूसरे पति से एक बेटी थी। बेटे का नाम था लंगड़ू । अच्छा नाम भी होगा पर उसकी माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी। हम भी लंगड़ूू ही कहते। वैसे वह लंगड़ा तो बिल्कुल नहीं था। मुझसे एकाध साल बड़ा होगा। दुबला पतला और लम्बा। हमेशा अपने साईज से बड़ा बुश्शर्ट पहने रहता। ढ़ीला ढ़ाला निकर। शर्ट आधी बाहर आधी अन्दर। शर्ट के बटन भी एक दो टूटे रहते। बाल बिखरे कभी बहुत बड़े तो कभी एकदम छोटे छंटे हुए लगभग मुंड़े हुए। सभी बच्चों में सबसे बेतरतीब। उसकी छोटी बहन लगभग तीन वर्ष की थी। उससे बिल्कुल अलग। हर समय सजी सुन्दर फ्रॉक पहने, बालों में रिबन से बंधी दो चोटियाँ। आँखों में काजल और पैरों में जूते या चप्पल भी जबकी लंगड़ू को हमने हमेशा नंगे पैर ही देखा था। यह वाकया उन्हीं भाई बहनों से सम्बंधित है। उनके पास एक तीन पहियों वाली साईकिल थी । साईकिल पर बहन को बैठा कर लंगड़ू ठेलते हुए बारामदे के कई चक्कर लगाता था। साईकिल पर बैठने के लिए बच्चे कई प्रकार के उपहार से लंगड़ू को मनाने की चेष्टा करते। लेमनचूस से लेकर बॉल तक देने को तैय्यार रहते पर मज़ाल है जो वह किसीको साईकिल पर बैठने देता। कभी बहुत उदारता दिखाता तो पीछे लगे डण्डे पर एक पैर रख कर ठेलने ईजाजत दे देता। वह भी हर किसी को नहीं। इसी कारण सभी बच्चे उसे अपना दुश्मन ही समझते थे। हमने अक्सर उसे अपनी माँ से डांट और मार खाते ही देखा था । बहन की गलती या रोने पर भी मार उसे ही पड़ती।
एक दिन हमें वह साईकिल बिल्कुल  लावारिस बरामदे में मिल गया। गर्मियों के दिन में हमें बाहर निकलने कि इज़ाजत नहीं थी। और हम शाम को ही बाहर निकलते थे। साईकिल देख कर मेरी और मेरे छोटे भाई बिमल की बाँछें खिल गई। ईधर उधर देखा कोई नज़र नहीं आया तो हमने साईकिल पर कब्जा कर लिया। बिमल बैठ गया और मै धक्का लगाने लगी। अभी बरामदे का एक फेरा लगा कर लौटे ही थे कि न जाने कहां से लंगड़ू नामूदार (प्रकट) हो गया। हमारा इरादा था कि जल्द से जल्द 2-4 फेरे लगा लेते। अगली बारी मेरे बैठने और बिमल के धक्का लगाने की थी। अपने इरादे पर पानी फिरता देख हम फौरन हमला करने के मूड में आ गए। मैं उसे एक तरफ से पकड़ कर पीछे ढ़केलने लगी तब तक बिमल भी आ गया और उसने उसे दूसरे तरफ से पकड़ा और हम उसे बरामदे के किनारे तक ले आए और नीचे उतरने पर मज़बूर कर दिया। उपर चढ़ना उसके बस का नहीं था क्योंकि उसका एक हाथ टेढ़ा था। बचपन में हड्डी टूटने पर इलाज नहीं कराने से हड्डी टेढ़ी जुड़ गई थी। घूम कर आना झाड़ियों के चलते खतरनाक था। अक्सर उसमें सांप दिख जाते। वह चढ़ने की कोशिश करता और हम उसका हाथ हटा देते। फिर तो वह चिल्लाने लगा और जोर जोर से बहन को बुलाने लगा। खैर उसकी माँ या बहन तो नहीं आई पर शोर सुन कर बाबूजी जरूर कमरे से बाहर आ गए। समझ तो गए ही होंगे कि हमने ही गिराया है पर हमें महसूस नहीं होने दिया और हमसे ही उसे ऊपर खिंचवाया और दोस्ती करवायी। बारी बारी से हाथ मिलवाया। वह साईकिल ले कर चलता बना । दोस्ती तो क्या होती वह और भी सावधान हो गया और उसने फिर कभी उस ट्राई साईकिल को अकेला नहीं छोड़ा।
मेरी बिटिया लाली बुआ के साथ (भिन्न  साईकिल पर)
इस तरह मेरी ट्राई साईकिल पर बैठने की हसरत हसरत ही रह गई। पर यह कहना कि यह हसरत कभी पूरी नहीं हुई गलत होंगा। उम्र बढ़ने पर ट्राई साईकिल चलाने की उम्र तो नहीं रही। पर जब मेरी बेटी 2 साल की थी तो उसके लिए एक अद्भुत  ट्राई साईकिल आई। बिल्कुल मोटर साईकिल की तरह । उसकी सीट भी मोटर साईकिल की तरह लम्बी थी। ऐसी कि एक के पीछ एक दो बच्चे आराम से बैठ जाते। हमारा और अन्य पड़ोसियों के क्वार्टर एक common कॉरिडोर से लगे थे। और शाम को हम पड़ोसियों का जमावड़ा किसीके न किसीके यहां लगता था। अक्सर कुर्सियाँ या मोढ़े कम पड़ जाते । बिटिया का साईकिल तब बैठने के काम आता और हमें अपने बचपन की हसरत पूरी होती महसूस होती। बिटिया साईकिल चलाते चलाते कॉरिडोर में कहीं न कहीं छोड़ आती और पड़ोसी उसे हमारे दरवाजे के तक चला कर पहुंचा जाते। वैसी मोटर साईकिल जैसी ट्राई साईकिल फिर कभी नहीं देखी। अनोखी थी वह साईकिल ।



बिराटनगर में एक दिन -सरोज सिन्हा

कोरोना के चलते चारो ओर ताला बन्दी (Lock down) है और कुछ लोग अल्प कालिक साहित्य सेवा में लग गए है। यहाँ तक कि मेरे पति भी लगातार ब्लॉग लिख रहे है। पर जब से उन्होनें यह विश्वास दिलाया की वे मेरी रचना को न सिर्फ टाईप कर देगें पर अपने ब्लागिंग साईट पर Publish भी कर देंगें मेरे अन्दर की प्रतिभा भी बाहर आने को मचल रही हैं कि क्यो नहीं इस बहती गंगा में मै भी डुबकी लगा लूं। पता नहीं यह पूरी डुबकी बन पाएगी या सिर्फ कौवा स्नान बन कर रह जाएगी। क्योंकी लेखन क्रिया मेरे बस की बात नहीं है। फिर भी कुछ खट्टे मीठे कड़वे या गुदगुदाने वाले अनुभव या यों कहे की यॉदें सबके साथ साझा करने की चेष्टा कर रही हूँ।
तब की बात है जब मैं 5-6 साल की थी । बाबूजी की Posting नेपाल के बिराट नगर में थी। मै और मेरे छोटे भाई बिमल और किशोर माँ के साथ काठमान्डू से बिराटनगर आ गए थे। हम किराये के मकान में रहते थे । मकान दो मंजिला था। सामने लम्बा सा करीब 10 फीट चौड़ा बरामदा था। इसी बरामदे से लगे कई कमरे थे जिसमें कई और किरायेदार रहते थे। अन्दर कमरे से लगे बरामदे थे। छोटा सा आंगन था और दूसरी ओर रसोई घर था। रसोईघर की खिड़की काफी नींची थी और किशोर जो 2 साल का था रसोई से चम्मच, कटोरी वैगेरह बाहर गिरा देता था। हमारी कामवाली जिसे हम लोग बुढ़ी माई कहते थे रोज शाम को गिराए गए सामानों को ले आती थी। घर के चारो ओर थेथर और अन्य झाड़ों की घनी झाड़िया थी।

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मकान के उपर के तल्ले में और भी किरायेदार थे। एक कैप्टन साहब भी थे। बगल का एक कमरा मकान मालकिन के भाई का था।उन्हें हमलोग मामा कहते थे। वे कहीं दूसरे शहर में पढ़ाई करते थे और सिर्फ छुट्टियों मे बिराट नगर आते थे। हुआ यों कि एक शनिवार (नेपाल में छुट्टी का दिन) मामा जी आए हुए थे और सिनेमा देखने गए हुए थे। मै और बिमल खेलते हुए घर के पीछे  शायद बॉल ढ़ूंढते ढ़ूंढते चले गए। और झाड़ियों में हमें नजर आया एक साँप की पूरी की पूरी केंचुली। उस समय बिराट नगर में सांप बहुत हुआ करते थे । हमने एक लम्बी छड़ी ढ़ूंढी और उस केंचुली को घर ले आए। यॉद नहीं बॉल का क्या हुआ। शायद बिमल को यॉद हो। छुट्टी का दिन था तो बाबूजी भी घर में ही थे। हमें डांट भी पड़ी कि झाड़ी में क्यो गए और यह क्या उठा लाए। बाबूजी ने छड़ी हमारे हाथ से ले ली और फेंकने निकले।तभी उन्हें कुछ ख्याल आया और उन्होंने उस केंचुली को "मामा" के कमरे की खिड़की से जो खुली थी, पलंग पर मचछरदानी के उपर फेंक दिया। पूंछ उपर और मुंह वाला हिस्सा नीचे की ओर लटका दिया। हमें कहॉ गया कि मामा को डरा कर मज़ा लेंगे। यह घटना 4-5 बजे शाम की थी और हम भूल भी गये थे । रात करीब साढ़े नौ दस बजे चीखने चिल्लाने की आवाज से सब बाहर निकल पड़े। हमारे साथ साथ और किरायेदार, पड़ोसी और मकान मालिक जो बगल में ही रहते आ गए। यानी अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा हो गई। मामा जी के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी -- सांप सांप ......। सांप का नाम सुनते ही सभी सूरमा लोग लाठी डण्डे ले कर आ गए। कमरे के दरवाजे को जोर जेर से ठकठकाने लगे कि शायद सांप बाहर आ जाए। अन्दर जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। किधर से आया.? .... उपर कैसे चढ़ा ? अगर मदन (मामा) घर पर होता तो क्या होता ? ..शंका और आशंका। बाबूजी ने आगे बढ़ कर केंचुली निकालने की चेष्टा की यह कह कहते हुए की सांप यहां नहीं है यह तो.....। पर इतनी देर में चार लोगों ने उन्हें पीछे खींच लिया "ज्यादा बहादुर न बनें" ! लोगों की चिन्ता व्यग्रता और उत्तेजना देखकर बाबूजी की हिम्मत नहीं हुई सच्चाई बताने की। सांप के लिए निकले लट्ठ कहीं उनपर ही न टूट पड़े। मकान मालकिन तबतक कोहराम मचाते हुई अपने पति पर विफर पड़ी कि झाड़ियों के कारण ही इतने सांप हो गए है और वे कुछ पैसे बचाने के चक्कर में उनके भाई के जान के दुश्मन हो गए हैं। सबके बार बार शिकायत करने पर भी मकान मालिक झाड़ी साफ नहीं करवा रहे थे।
बाबूजी ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी पर हमारी ओर सशंकित नज़रो से देख रहे थे कि कहीं हम न बोल पड़े । मामा  रात में कहीं और सोए ..कमरे में "सांप" जो था।
अगली सुबह उजाला होते ही चार मजदूर पहुंच गए और दस बजते बजते सारी झाड़िया साफ हो गई। फिर कमरे की सफाई हुई, सारे  सामान निकाले गए, पर सांप नहीं मिलना था और वो नहीं मिला।
जो झाड़ियाँ महिनों की शिकायत के बाद भी साफ नहीं हो पायी थी एक छोटे से मजा़क ने करवा दिया। मैंने और बिमल ने रहस्य को रहस्य ही रहने दिया था। पर आज ये रहस्योदघाटन कर ही डाला मैंने। झाड़ी कटने का एक घाटा भी था। किशोर के फेंके सामान अब गायब होने लगे थे।