Monday, May 25, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी: दूसरा भाग। - सरोज सिन्हा

मै पहले भाग में अनोखी और सरल बूढ़ी माई के बारे में लिख चुकी हूँ। शायद पढ़ा हो आपने। फिर से पढ़ना चाहे तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
दूसरा भाग
पिछली बार मै उन्ही घटना के बारे में ही बता पाई जो हमारे सामने घटित हुई।उसने अपने पूर्व जीवन के बारे में टुकड़ो में जो भी बताया उसे संकलित कर बाकी की कहानी प्रस्तुत है।

बुढ़ी माई को हमारे घर काम करने के लिए उसका पति लेकर आया था और हिदायत दे कर गया था कि तनख्वाह के पैसे लेने वह खुद आएगा।हर महीने के पहले शनिवार को वह पहुंच जाता।अपनी 'बूढ़ी' को आवाज देता और पैसे ले कर चला भी जाता पर बूढ़ी माई घर के अन्दर ही कहीं दुबकी रहती।जब तक उसे विश्वास न होता कि उसका 'बूढ़ा' चला गया तब तक वह बाहर नहीं निकलती। मैनें एक बार पूछा तो बोली कि मेरा घर यही है।उसे डर था कि वह उसे अपने साथ उसके घर न ले जाए। लगभग ४५ की थी जब वो हमारे घर आई थी।पहाड़ पर कठिन परिश्रम और उस से भी कठिन मौसम झेलने के चिह्न पहाड़ी लोगों के चेहरे पर झुर्रियों के शक्ल में उभर आता  है और वे उम्र से ज्यादा उमरगर नज़र आने लगते हैं।

मै, बुवा (नाना) , किशोर और विमल
अपने बारे में ज्यादा बात करने की आदत नहीं थी उसे, पर टुकड़ो में  कभी कभी कुछ बता देती। यह उसका तीसरा पति था। खाना बनाना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था । शायद पहला पति इसीलिए दूसरी बीबी ले आया था ।  फिर भी समस्या नही सुलझी।दूसरी को भी यह मंजूर नहीं था कि वही   हमेशा खाना पकाए। तो पति ने समाधान निकाला और एक दिन के अन्तराल पर दोनो में काम का बंटवारा कर दिया । पानी लाना,  सफाई,  बकरी चराना, उनका चारा लाना, लकड़ी लाना सारे काम वह खुशी खुशी कर देती पर जिस दिन खाना बनाने की बारी होती वह मुंह अन्धेरे बकरियाँ लेकर पहाड़ी जंगल में निकल जाती । सुबह निकलते समय चूड़ा, भूँजा, नमक की पोटली बांध लेती देर शाम को ही चारा घास लेकर लौटती ताकि रात का खाना भी न बनाना पड़े। झख मार कर दूसरी को ही खाना बनाना पड़ता और फिर जो खूब झगड़ा होता होगा कल्पना ही कर सकते है। आखिर परेशान हो कर भाग गई किसी और के साथ। पर यहाँ तो आकाश से गिरे खजूर पर अटके वाली हालत थी। इस दूसरे पति की पहले से ही दो पत्नियाँ थी। अब पति के साथ दो-दो सौतनों को भी झेलना था। जब बरदाश्त न कर सकी तो फिर भाग गई तीसरे पति के साथ । लेकिन खाना बनाने को लेकर यहाँ भी रोज़ झिक-झिक होने लगी। पति ने उसे यहाँ काम पर लगाया और अपनी गृहस्थी संभाल ली नई बीवी के साथ।

तीन-तीन शादी करने के बाबजूद उसको कोई बच्चा न हुआ। एक बार हमने उसे पूछ लिया उसके बच्चों के बारे में तो बहुत आहत स्वर में कहा था तुम लोग क्या मेरे बच्चे नहीं हो? फिर हम भाई बहनो ने यह प्रश्न कभी नहीं किया। मेरे दूसरे भाई किशोर के जन्म के कुछ महीने बाद ही हमारे घर आई थी। दो साल बाद अनिल और फिर गुड्डू का जन्म उसके सामने ही हुआ था। अनिल के प्रति कुछ विशेष ही स्नेह था उसका।

झुर्रियों से भरा चेहरा,  छोटा कद लेकिन मजबूत काठी। होठ हमेशा बुदबुदाने के कारण हिलते रहते। अक्सर सामने कोई  नहीं होने पर भी 'हट हट' बोलते हुए चलती। सुन कर हम खूब हंसते। उसके अनुसार हवा में हमेशा अदृश्य आत्माएं घूमती रहती है। उनसे टकराना अच्छा नहीं । हमारे हंसने पर कुछ आहत भी होती।

सप्ताह में एक दिन पूरे घर में पूजा करती, नज़र उतारती , हर कमरे के उपर अबीर का टीका लगाती फिर हम बच्चों का नज़र उतारती। रेडियो को 'रेड्डी' बोलती। लोकगीत कार्यक्रम में जब भी तामांग गीत बजता बैठ कर मनोयोग से सुनती और आश्चर्य व्यक्त करती कि इस 'रेड्डी' को हमारा गाना कैसे पता है ? हमारे अनुरोध पर एक दो लाईन गा कर भी सुनाती।

किसी बाहरी लोग से 'अपने  घर' की आलोचना बिल्कुल मंजूर न था। चप्पल पहनना उसे बिल्कुल पसंद न था। आस पड़ोस के लोग व्यंग से टोक देते 'मालिक ने एक चप्पल भी नहीं दिलवाया ?' तुनक कर जवाब देती 'मालिक ने मुझे इतने चप्पल दिए हैं कि उन्हें बिछा कर सोती हूँ अगर चाहिए दो चार दे सकती हूँ।' और फिर गुस्से में फनफनाती भुनभुनाती घर लौटती और माँ को पूरी घटना बताती।

हम चार भाई बहनों के उत्पात का अन्त न होता (गुड्डू तब बहुत छोटा था) । सबके  फरमाइस व अत्याचार सहती। आपस में हमारी लड़ाई भी खूब होती, और माँ से डाँट और पिटाई भी मिलती। लेकिन माँ के पहले थप्पड़ पर ही बूढ़ी माई भुनभुनाती घर के दूसरे भाग में नानू-बुवा (नानी, नाना)  के पास पहुंच जाती। हांफती, कांपती आवाज में 'गुहार लगाती' कि आज तो किसी बच्चे की जान जाने वाली है, जल्दी चलिए। पूरी बात कहने का अवकाश कहाँ था बूढ़ी माई के पास। जान जाने की बात पर नानू-  बुवा घबड़ा कर चले दौड़े चले आते। उन्हें देख कर माँ हतप्रभ रह जाती। माँ को ही झिड़की सुननी पड़ती और हम मुंह छुपा कर हँसते। धीरे धीरे हम बड़े हो गए और हमारी जगह हमारे ममेरे और मौसेरे  छोटे भाई बहनें ने ले ली। उनके लिए भी बूढ़ी माई उतनी ही चिन्तातुर रहती।
बूढ़ी माई हमारे बचपन और जीवन की अटूट हिस्सा थी। मेरे अगले ब्लॉगों में वर्णित कई घटनाओं की नायिका भी बूढ़ी माई है,  आशा है आप पढ़ेगें।

Monday, May 11, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी। - सरोज सिन्हा

जीवन के सफ़र में अनेक लोगों से साबका पड़ता हैं। कभी पढ़े लिखे डिग्री हासिल किए लोगों की संकीर्ण मानसिकता हमें दुखी कर जाती है और कभी बिलकुल अनपढ़ और लोगों की नज़र में गंवार समझे गए लोगों का नज़रिया आश्चर्य में डाल देता है। ऐसा ही विलक्षण  व्यक्तित्व था बुढ़ीमाई का। बचपन से ही बूढ़ीमाई को साथ देखा था। ५ वर्ष की थी जब वह हमारे यहाँ रहने आई । मेरे दूसरे छोटे भाई किशोर के जन्म के समय से ही लगभग पच्चीस वर्षों तक साथ रही। छोटा-सा कद, चेहरे पर अनेक सिलवटें और झुर्रियों का जाल । पर होठों पर एक मुस्कुराहट। ऊँची साड़ी और कमर में पटुका बाँधे हर समय काम में ब्यस्त।
बुढ़ी माई रूपा, किशोर, बबली और मुन्ना के साथ
पूरे घर की सफाई, पुताई उसकी ही जिम्मेवारी थी । काठमांडू में पुराने घरों में फर्श मिटटी के ही होते थे । महीने में एक दिन फर्श पर बिछी दरी और चादर उठाकर धूल झाड़ा जाता, धूप दिखाई जाती । घर के फर्श पर मिटटी और गोबर की पुताई की जाती। सूखने पर सभी सामान यथास्थान रखा जाता। सोफे या कुर्सी का प्रचलन नहीं था । बैठने के लिए मोटे-मोटे गद्दे (नेपाली में चकती) की आसनी बनी होती जिसमें सफ़ेद या हल्के रंग के गिलाफ चढ़े होते जिन्हें हर हफ्ते धोया जाता ।रसोई की लिपाई पुताई हर रोज़ होती थी। घर में सबसे नीचे झिरी होती जिसका उपयोग स्टोर रूम या गाय आदि बांधने के लिए किया जाता। पहला तल्ला रहने सोने के लिए होता। रसोई सबसे उपर attic में होता।  लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता। सुबह सबेरे उठकर चूल्हा जला कर पीने का पानी उबलने के लिए बड़ी देग में चढ़ाया जाता। चाय का पानी चढ़ा कर दो बोरसी में आग सुलगा कर बूढ़ीमाई अपनी बोरसी ले कर बैठ जाती चाय के इंतज़ार में। माँ के रसोई में पहुँचने तक चाय का पानी उबल चुका होता। पीने का पानी भी उबल चुका होता । उसे हटा कर दाल का अदहन चढ़ा दिया जाता। दो आँख वाले चूल्हे पर एक ओर दाल उबलता होता और दूसरे पर चाय बनती, दूध गरम होता ब्रेड सेंका जाता। नाश्ता निपटने तक सब्जी बनने लगती फिर चावल चढ़ा दिया जाता। नाश्ता कर हम पढ़ने बैठ जाते। दस बजे स्कूल और ऑफिस जाने के लिए खाना बन कर तैय्यार हो जाता। बूढ़ी माई का काम माँ के साथ चलता रहता। दो मंजिले (नेपाली: ब्यूंगल, English Attic) पर रसोई घर था और नल नीचे आँगन में था। वहाँ से पानी भर लाना, मसाला पीसना, सब्जी धोना सभी काम चलता रहता। हम सभी चाय, दूध पी लेते तो केतली बूढ़ी माई को थमा दिया जाता । शुरू-शुरू में माँ सबके साथ-साथ बूढ़ी माई को भी उसके गिलास में चाय दिया करती और दोपहर का खाना भी थाल में निकाल कर पकड़ा देती । लेकिन हमारी अनोखी बूढ़ीमाई असंतुष्ट ! दिन भर बड़बड़ाती रहती । चाय भी नहीं मिला या खाना नहीं खाया या चाय ठीक नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने की हड़बड़ी में किसी दिन माँ ने केतली ही पकड़ा दी और उसदिन उसकी संतुष्टि और मस्कुराहट देख कर माँ को समझ में आया। भले ही किसी दिन केतली में बची चाय से उसका गिलास आधा ही भरता, माँ की और चाय बना कर देने की पेशकश बड़ी बेफिक्री से ठुकरा देती, यह कहकर की ज़्यादा चाय नहीं पीनी चाहिए. खाने के मामले में भी यही बात थी । खाने के बाद रसोई बुढ़ीमाई के हवाले हो जाता। सब्जी धोने वाले कठौती में खाना परोसकर आनंद ले कर खाते देखना हम बच्चों के लिए कौतुक भरा रोचक दृश्य था। कभी कभी वह सब्जी परोसने वाली बड़ी चम्मच को ही अपने खाने का चम्मच बना लेती।
शाम के नाश्ते में कभी हलुवा, खीर या कुछ नया बनता तो हम बच्चे कुछ ज्यादा ही खा लेते। माँ हम सबका हिस्सा निकाल कर बुढ़ीमाई का हिस्सा उसी बर्तन में छोड़ देती । हम और मांगते तो माँ को मना करना पड़ता । तब बुढ़ीमाई अपना हिस्सा हमें बाँट देती और कहती बच्चों को अतृप्त रख कर मैं कैसे खा पांउगी। हमें भी यह "ज्ञान" हो गया कि बुढ़ीमाई को स्वादिष्ट चीजों की जरूरत नहीं ! क्योंकि माँ नाश्ते में कुछ चूड़ा, मुढ़ी या ब्रेड दे देती । तो एकदिन हमनें कड़ाही में छोड़े बुढ़ीमाई का हिस्सा आपस में बाँट लिया। उस दिन उसकी असंतुष्ट बड़बड़ाहट से माँ को घटना का पता चला। सबसे बड़ी होने के चलते मुझे डांट के साथ हिदायत मिली। पर इसमें भी सबसे ज्यादा दुःख बुढ़ीमाई को ही हुआ कि उसके कारण हमें डाँट पड़ रही है।
घर में अक्सर मेहमान पशुपति दर्शन के लिए आते ही रहते। सप्ताह भर रह कर काठमाण्डू भ्रमण कर वापस लौटते। सुबह शाम बर्तनों का ढ़ेर लग ही जाता पर उसका चेहरा मलिन न होता। "चेहरे पर शिकन  नहीं पड़ती" ऐसा इसलिए नहीं कहा क्योंकि इतनी झुर्रीयों और शिकन के बीच कोइ "एक शिकन" कैसे पता चलता। लेकिन कुकर के मामले में ऐसा न था। कुकर के अन्दर मुड़े किनारे के कारण शायद धोने में दिक्कत होती या पानी ज्यादा लगता जो उसे नीचे से ढ़ोकर लाना होता।बड़बड़ाती रहती 'कितना कहती हूँ इस लामपुच्छ्रे (लम्बी पूंछ ) को मत निकालो पर कौन सुने।

किशोर के जन्म के समय आई बुढ़ीमाई मेरे छोटे भाई अनिल और गुड्डू के जन्म की साक्षी बनी। हम पांच भाई बहनों के रोज़ के हड़कंप को कितनी सरलता से संभाल लेती। कभी हम कुत्ते के पिल्लों को उठा लाते एक दो नहीं चार-चार । फिर माँ के डांटने पर एक को रख कर बांकी वापस रख आना पड़ता या कोई लेने वाला हुआ तो बड़ी अहसान और हिदायत के साथ दिया जाता। पिल्लों में से एक का चुनाव बड़ी समझदारी से किया जाता। हम भाई बहन बारी-बारी से पिल्लों को दोनों कान से पकड़ कर उठाते और झुलाते। जो पिल्ला कूँ-कूँ करता वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाता। चार दिनों तक कुत्ते की पावरिश हम बच्चे बड़ी जिम्मेदारी से उठाते, खाना पानी का ध्यान रखा जाता पर उसकी गन्दगी साफ़ करने का काम तो बूढी माई को ही करना पड़ता। सप्ताह दस दिनों के बाद हमारा ध्यान शायद मुर्गी के चूज़ों पर चला जाता और हम उसे अपने पॉकेट खर्च को बचा खरीद कर ले आते। उनका भी यही हाल होता। फिर सारी जिम्मेदारी बुढ़ी माई की ही होती। शाम को सभी चूज़ों को गिनकर दरबे में बंद करती सुबह दरबे से निकाल कर दाना पानी देने से लेकर पूरे आँगन में फैलाये गन्दगी दिन में दो बार साफ़ करने तक। लेकिन सभी समय बुदबुदाती बड़बड़ाती रहती।
कुत्ते की गन्दगी साफ़ करते वक्त "मरता भी नहीं" उसे ऐसा बड़बड़ाते हमने कई बार सुना था। वह कुत्ता था भी बहुत असभ्य। बालकनी (बार्दली) के लोहे के छड़ के बीच से गर्दन बहार निकाल कर हर आने जाने वाले पर पूरी ताकत से भौंकता रहता। कभी-कभी इतना उत्तेजित हो जाता लगता ऊपर से ही कूद पड़ेगा। कई बार रास्ते चलने वाले बच्चों के पीछे भी पड़ गया था तब से उसे बांध कर ही रखते। जिन बच्चों को दौड़ाया था वे बदला लेने के लिए उसे गुलेल से पत्थर मारते। एक दिन एक पत्थर ने उसकी आंख ले ली। उस दिन हमने बूढी माई को रोते देखा ! दूसरी बार कुछ सालों बाद, वह कुत्ता जिसका नाम ही हमने डेंजर रखा था अचानक गायब हो गया। अक्सर वह गायब होने पर एक दो दिन में वापस भी आ जाता। पर इस बार नहीं लौटा। पता नहीं कहाँ चला गया। हमने गली मोहल्ले में पूछा, खोजा पर नहीं मिला। मोहल्ले वालों ने तो रहत की साँस ली होगी। पर बूढ़ी माई के चेहरे की वह मुस्कान उन दिनों गायब हो गई। उठते बैठते बड़बड़ाती श्राप देती रहती। उसके ख्याल से किसी कुत्ता पीड़ित ने ही उसे मार डाला होगा सो उस अदृश्य हत्यारे को कोसती रहती। जब हमने याद दिलाया कि उसके मरने का मनता तो वह खुद ही करती रहती थी तो बूढी माई आहत हो गयी। मरने का मतलब "मर जाना नहीं होता" उसका कहना था। मनुष्य का जीवन बड़े पुण्य के बाद मिलता है इसलिए जीवन को भगवान का आशीर्वाद मान कर ज़्यादा से ज़्यादा सार्थक बनाना चाहिए. किसी ज्ञानी पंडित की तरह उसके विचार सुनकर माँ भी आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगी थी। पढ़ने के समय अगर हम कहीं और दिख जाते तो तुरंत टोक देती। उसको अपने नहीं पढ़ पाने का अफ़सोस शायद था। जिसको पढ़ने लिखने का मौका मिला उसे उसका महत्त्व नहीं होता उसकी डांट के शब्द होते। माँ के डांट से भी हमें बचाती रहती।
लोगो से ज़्यादा मोह माया नहीं रखना चाहिए, ऐसा उसका विचार था। पर आचरण में उलट ही दिखता । शब्दों में वह अपनी भावना ब्यक्त नहीं करती थी पर उसकी खुशी और सुख दुःख की अभिव्यक्ति उसके चेहरे पर साफ़ दिख जाती । एक वाकया हमें याद है जब मैं अपने दो साल की बिटिया को लेकर काठमांडू आई हुई थी। जनवरी की जमा देने वाली सुबह। हम सब चाय पीने रसोई घर पहुँचे। बूढी माई भी सभी काम निपटा कर एक बोरसी लिए ठिठुरती उंगलियों को गरमाने में लगी थी। मेरी बिटिया सानु मेरा हाथ छोड़कर बूढी माई के सामने खड़ी हो गयी। बूढी माई ने बोरसी दूर सरका दी। तब तक सानु उसका शाल सामने से हटा कर उसकी गोद में बैठ गयी और शाल से अपने हाथ पैर ढ़क लिए। उस दिन बूढी माई के चेहरे पर जो तृप्ति की मुस्कान मैंने देखी आज भी मेरे आँखो के सामने है। उस मुस्कान में क्या था ? इस घर को अपना समझने की तृप्ति जिसका मूल्य इस बच्ची ने चुका दिया।
अभी भी बहुत कुछ हैं हमारी अपनी बूढी माई के याद करने के लिए । फिर कभी।


Monday, May 4, 2020

देर से ही सही “धन्यवाद” ! -सरोज सिन्हा


हमारे प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा किये गए थाली, ताली बजाने और दिया जलाने के आह्वान ने मुझे भी कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। कोरोना कहर के बीच अपनी परवाह कर जनता कि सेवा करने वाले डॉक्टर, अन्य स्वस्थ्य कर्मी, सफाई कर्मचारी, पुलिस, सुरक्षा कर्मी, सेना के जवान, बैंक कर्मी इन सब को धन्यवाद कहने का यह अनोखा तरीका मोदी जी ही सोच सकते है। यह सभी लोग हमारी सहायता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पहले से ही करते आये है। मॉल, सिनेमाघर, अस्पताल या किसी रिहायशी  जगह के सुरक्षाकर्मी जब हमारे  लिए दरवाज़ा खोल कर सलाम करता है,  शायद ही लोगों ने धन्यवाद सही, मुस्करा कर ही उनकी काम को सराहा हो।  उनकी तरफ देखने का भी कष्ट नहीं उठाते। हवाई यात्रा में नम्रता से दुहरी हुई जाती एयर होस्टेस द्वारा हमारे  स्वागत में किये नमस्कार का जवाब भी कुछ ही लोग देते है। हमें लगता है यह तो उनके  काम का एक हिस्सा भर  है।

जीवन यात्रा में भी कई लोग मिल जाते है जो हमारे जीवन में अपनी तरह से प्रभाव डालते है। उस समय उनकी की गई मदद साधारण-सी लगती है। मैं भी अतीत में मुड़ कर देखती हूँ तो कई लोग याद आते है जिन्होंने हमारे लिए कभी न कभी कुछ किया था। आज मैं उनको धन्यवाद देना चाहती हूँ। कभी-कभी तो एकदम अनजान अपरिचित लोगों ने भी सही समय पर सहायता या सहयोग दिया है । ऐसी ही तक़रीबन पचास साल पुरानी एक घटना अभी याद आ रही है। जब मैं  काठमांडू के एक कॉलेज में पढ़ रही थी । मैं और मेरी एक सहेली दोपहर तीन बजे के करीब कॉलेज से घर लौट रही थी। रास्ता बनाने के लिए एक तरफ मिट्टी का ढेर लगा था और दूसरी तरफ एक 5-6 फ़ीट गहरा और 20 फ़ीट चौड़ा और कुछ ज़्यादा ही लम्बा गड्ढा था। बारिश के दिन थे और इस कारण वह गड्ढा कीचड़-कीचड़ था और दलदल बना हुआ था। उसी गड्ढे के बगल से निकल कर आगे रोड तक जाने का ये हमारा रोज़ का रास्ता था, उन दिनों वहां पूरा खेत था जिसके बीच से एक पतली गली जाती थी । किनारे एक काम चलाऊ गेराज भी था ।  घूम कर पक्के रास्ते  से जाने पर दो ढाई किलोमीटर का चक्कर पड़ जाता था । उस दिन कुछ दूर पर कुछ गायें चर रही थी और उनके बीच एक हठ्ठाकठ्ठा साढ़ भी था । लोग फिर भी आ जा रहे थे । हमें खतरे का कोई अहसास नहीं हुआ क्योंकि वे खासी दूरी पर थे और लोग आ जा भी रहे थे । पर जैसे ही हम गढ्ढे के किनारे किनारे कुछ दूर गए होंगे हमने देखा की वह सांढ़ फुंफकारते हुए हमारी ओर ही चला आ रहा था हम दोनों घबरा कर कोई और चारा न देख कर उसी  गढ्ढे़ में उतर गए । आस पास के लोगों ने फिर साढ़ को खदेड़ दिया  खदेड़ने वालों में  गेराज के मैकेनिक भी थे  इस  भगदड़ और  आपाधापी में मैं कुछ ज्यादा ही नीचे उतर गयी थी । मेरे दोनों पैर कीचड़ में धंस गए थे । एक पैर किसी तरह निकल कर एक सूखी  जगह रख कर मैंने दूसरे पैर भी किसी तरह निकला पर चप्पल तो वहीं अटक गयी । कीचड तबतक बराबर भी हो गया था । मैं पैर कीचड में डाल कर चप्पल निकालने की कोशिश करने लगी पर नाकाम रही। गढ्ढे के ऊपर नज़र गई तो देखा दस पंद्रह लोग इकठ्ठा हो चुके थे। दशहत और शर्म से मानों कलेजा बाहर आने को बेताब हो रहा था। मैंने दूसरा चप्पल भी वहीं छोड़ा और बाहर निकल कर नंगे पाँव ही घर की  ओर  चल दिए।

अगले दिन फिर उसी जगह वही साढ़ नज़र आया हमें जाने की हिम्मत पडी और हम लम्बे रास्ते  की ओर बढ़े ही थे की कुछ लड़के हाथों में लकड़ी लिए हुए दौड़े आये और उन्होंने उन गायों औ उस साढ़ को वहां से खदेड़ दिया इसी बीच एक लड़का मेरी तरफ आया और एक थैला  मेरे हाथों में थमा कर भाग गया थैले में अख़बार में लिपटे सामान को खोलने पर मेरे दोनों चप्पल निकले, धुले, सुखाये और पॉलिश किये हुए मैं कभी नहीं जान पायी वह कौन था   शायद गेराज में काम करने वालों में से कोई था

आज मैं सोच रही थी हमारे पास सांढ से बचने के कोई और ऑप्शन थे क्या? नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल  में एक प्रोग्राम आता है “Do or Die” जिसमें ऐसे ही कठिन परिस्थिति में बचने के तीन ऑप्शन दिए जाते है और एक ही सही होता है जैसे A) हम या तो पीछे मुड़ कर सांढ से ज्यादा तेज़ भाग लेते । Bअपने शाल को मेटाडोर की तरह प्रयोग कर के सांढ़ से पीछा छुड़ा लेते । C) गड्ढे में उतर जाते निश्चित रूप से नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल भी ये ही  बताता की C) ऑप्शन ही सही था   हा हा हा


दूसरी घटना कॉलेज के शुरुआती दिनों के है । कॉलेज का ड्रेस था खादी की गेरुआ + लाल, और कथ्थई बॉर्डर वाली साड़ी । साड़ी मोटी और भारी थी और हम थे नवसिखिया । कभी साड़ी एक बार में ही मनचाहे तरीके से लिपट जाती और कभी अड़ियल टट्टू की तरह ज़िद पर अड़ जाती तो बार बार कोशिश करने पर भी ठीक से पहन न पाते ।  इसी चक्कर में अक्सर कॉलेज के लिए देर हो जाती । माँ, चाची को देख कर बड़ा आश्चर्य होता की साड़ी पहन कर हर काम कैसे आसानी से कर लेती हैं। साड़ी तो पहन लेते पर  सड़क तक आते आते साड़ी पैरों में लिपटने लगती । छोटे छोटे कदम चलने पड़ते ।  फिल्म "दीवाना मस्ताना" में गोविंदा के बेबी स्टेप देख कर बरबस अपनी स्थिति याद आ गयी थी। इसके  चलते बस स्टॉप पहुंचने में देर हो जाती । दूर से बस दिख तो जाती पर दौड़ना मुश्किल होता । पूरी ताकत लगा कर चलते पर तेज़ चल  न पाते । बिलकुल निराश हो जाती। सभी यात्री चढ़ जाते और बस अभी खुली की तभी खुली की स्थिति में आ जाती। अभी भी हम दूर ही होते । लेकिन यदि बस कंडक्टर ने हमें देख लिया होता तो २-३ मिनट बस को रोके रखता ताकि हम पहुंच जाए ।  बस कॉलेज गेट के सामने से ही गुजरती पर बस स्टॉप आधा किलोमीटर आगे था या आधा किलोमीटर पीछे । साड़ी पहन कर हमारा इतना चल लेना भी बड़ा काम था । अक्सर कंडक्टर हमें पहले स्टॉप पर उतरने से रोक देता और कॉलेज गेट के सामने बस रोक कर हमें उतर देता ।   मैं आज भी उन बस ड्राइवर और कंडकटर का कृतज्ञ हूँ ।

हमारे घर की एक सदस्य बुढ़ी माई  भी जिन्होनें  लगभग पच्चीस वर्ष तक हमारे साथ रह कर सबकी सेवा की भी धन्याद की पात्र  है । उन्होंने हम बच्चों की अनेकों  ज्यादतियां बड़बड़ाते कोसते हुए ही सही बर्दास्त किया । कभी हम कुत्ते का बच्चे उठा  ले आते या मुर्गी के चूज़े । हमरी जि़म्मेदारी तो बस उनसे खेलने की होती । उन छोटे छोटे चूज़ों और पिल्लों की गन्दगी सांफ करना । समय पर दड़बे से बहार करना, या फिर बंद करना बुढ़ी माई ही करती ।  बुढ़ी माई की कथा कहने लगू तो यह ब्लॉग काफी लम्बा हो जाएगा तो अगली बार फुर्सत से ।