Monday, May 25, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी: दूसरा भाग। - सरोज सिन्हा

मै पहले भाग में अनोखी और सरल बूढ़ी माई के बारे में लिख चुकी हूँ। शायद पढ़ा हो आपने। फिर से पढ़ना चाहे तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
दूसरा भाग
पिछली बार मै उन्ही घटना के बारे में ही बता पाई जो हमारे सामने घटित हुई।उसने अपने पूर्व जीवन के बारे में टुकड़ो में जो भी बताया उसे संकलित कर बाकी की कहानी प्रस्तुत है।

बुढ़ी माई को हमारे घर काम करने के लिए उसका पति लेकर आया था और हिदायत दे कर गया था कि तनख्वाह के पैसे लेने वह खुद आएगा।हर महीने के पहले शनिवार को वह पहुंच जाता।अपनी 'बूढ़ी' को आवाज देता और पैसे ले कर चला भी जाता पर बूढ़ी माई घर के अन्दर ही कहीं दुबकी रहती।जब तक उसे विश्वास न होता कि उसका 'बूढ़ा' चला गया तब तक वह बाहर नहीं निकलती। मैनें एक बार पूछा तो बोली कि मेरा घर यही है।उसे डर था कि वह उसे अपने साथ उसके घर न ले जाए। लगभग ४५ की थी जब वो हमारे घर आई थी।पहाड़ पर कठिन परिश्रम और उस से भी कठिन मौसम झेलने के चिह्न पहाड़ी लोगों के चेहरे पर झुर्रियों के शक्ल में उभर आता  है और वे उम्र से ज्यादा उमरगर नज़र आने लगते हैं।

मै, बुवा (नाना) , किशोर और विमल
अपने बारे में ज्यादा बात करने की आदत नहीं थी उसे, पर टुकड़ो में  कभी कभी कुछ बता देती। यह उसका तीसरा पति था। खाना बनाना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था । शायद पहला पति इसीलिए दूसरी बीबी ले आया था ।  फिर भी समस्या नही सुलझी।दूसरी को भी यह मंजूर नहीं था कि वही   हमेशा खाना पकाए। तो पति ने समाधान निकाला और एक दिन के अन्तराल पर दोनो में काम का बंटवारा कर दिया । पानी लाना,  सफाई,  बकरी चराना, उनका चारा लाना, लकड़ी लाना सारे काम वह खुशी खुशी कर देती पर जिस दिन खाना बनाने की बारी होती वह मुंह अन्धेरे बकरियाँ लेकर पहाड़ी जंगल में निकल जाती । सुबह निकलते समय चूड़ा, भूँजा, नमक की पोटली बांध लेती देर शाम को ही चारा घास लेकर लौटती ताकि रात का खाना भी न बनाना पड़े। झख मार कर दूसरी को ही खाना बनाना पड़ता और फिर जो खूब झगड़ा होता होगा कल्पना ही कर सकते है। आखिर परेशान हो कर भाग गई किसी और के साथ। पर यहाँ तो आकाश से गिरे खजूर पर अटके वाली हालत थी। इस दूसरे पति की पहले से ही दो पत्नियाँ थी। अब पति के साथ दो-दो सौतनों को भी झेलना था। जब बरदाश्त न कर सकी तो फिर भाग गई तीसरे पति के साथ । लेकिन खाना बनाने को लेकर यहाँ भी रोज़ झिक-झिक होने लगी। पति ने उसे यहाँ काम पर लगाया और अपनी गृहस्थी संभाल ली नई बीवी के साथ।

तीन-तीन शादी करने के बाबजूद उसको कोई बच्चा न हुआ। एक बार हमने उसे पूछ लिया उसके बच्चों के बारे में तो बहुत आहत स्वर में कहा था तुम लोग क्या मेरे बच्चे नहीं हो? फिर हम भाई बहनो ने यह प्रश्न कभी नहीं किया। मेरे दूसरे भाई किशोर के जन्म के कुछ महीने बाद ही हमारे घर आई थी। दो साल बाद अनिल और फिर गुड्डू का जन्म उसके सामने ही हुआ था। अनिल के प्रति कुछ विशेष ही स्नेह था उसका।

झुर्रियों से भरा चेहरा,  छोटा कद लेकिन मजबूत काठी। होठ हमेशा बुदबुदाने के कारण हिलते रहते। अक्सर सामने कोई  नहीं होने पर भी 'हट हट' बोलते हुए चलती। सुन कर हम खूब हंसते। उसके अनुसार हवा में हमेशा अदृश्य आत्माएं घूमती रहती है। उनसे टकराना अच्छा नहीं । हमारे हंसने पर कुछ आहत भी होती।

सप्ताह में एक दिन पूरे घर में पूजा करती, नज़र उतारती , हर कमरे के उपर अबीर का टीका लगाती फिर हम बच्चों का नज़र उतारती। रेडियो को 'रेड्डी' बोलती। लोकगीत कार्यक्रम में जब भी तामांग गीत बजता बैठ कर मनोयोग से सुनती और आश्चर्य व्यक्त करती कि इस 'रेड्डी' को हमारा गाना कैसे पता है ? हमारे अनुरोध पर एक दो लाईन गा कर भी सुनाती।

किसी बाहरी लोग से 'अपने  घर' की आलोचना बिल्कुल मंजूर न था। चप्पल पहनना उसे बिल्कुल पसंद न था। आस पड़ोस के लोग व्यंग से टोक देते 'मालिक ने एक चप्पल भी नहीं दिलवाया ?' तुनक कर जवाब देती 'मालिक ने मुझे इतने चप्पल दिए हैं कि उन्हें बिछा कर सोती हूँ अगर चाहिए दो चार दे सकती हूँ।' और फिर गुस्से में फनफनाती भुनभुनाती घर लौटती और माँ को पूरी घटना बताती।

हम चार भाई बहनों के उत्पात का अन्त न होता (गुड्डू तब बहुत छोटा था) । सबके  फरमाइस व अत्याचार सहती। आपस में हमारी लड़ाई भी खूब होती, और माँ से डाँट और पिटाई भी मिलती। लेकिन माँ के पहले थप्पड़ पर ही बूढ़ी माई भुनभुनाती घर के दूसरे भाग में नानू-बुवा (नानी, नाना)  के पास पहुंच जाती। हांफती, कांपती आवाज में 'गुहार लगाती' कि आज तो किसी बच्चे की जान जाने वाली है, जल्दी चलिए। पूरी बात कहने का अवकाश कहाँ था बूढ़ी माई के पास। जान जाने की बात पर नानू-  बुवा घबड़ा कर चले दौड़े चले आते। उन्हें देख कर माँ हतप्रभ रह जाती। माँ को ही झिड़की सुननी पड़ती और हम मुंह छुपा कर हँसते। धीरे धीरे हम बड़े हो गए और हमारी जगह हमारे ममेरे और मौसेरे  छोटे भाई बहनें ने ले ली। उनके लिए भी बूढ़ी माई उतनी ही चिन्तातुर रहती।
बूढ़ी माई हमारे बचपन और जीवन की अटूट हिस्सा थी। मेरे अगले ब्लॉगों में वर्णित कई घटनाओं की नायिका भी बूढ़ी माई है,  आशा है आप पढ़ेगें।

3 comments:

  1. बड़ा ही मार्मिक अवाम मेरमस्पर्शी

    ReplyDelete
  2. Some people leave such an unforgettable imprint on our hearts!! Boodi mayi was one such beautiful soul.

    ReplyDelete
  3. Bua the way you have described everything makes us feel that we are living in that time. We very fondly remember the house at Kathmandu and days spent there. All the memories got refreshed again.

    ReplyDelete