Wednesday, June 10, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी: तीसरा भाग। - सरोज सिन्हा

यात्रा या यात्रा करने के साधन याद करूं तो अनेक रोचक प्रसंग याद आते हैं । बचपन से ही काफी सारी स्मरणीय यात्राएं करने का संयोग प्राप्त हुआ है। दादीगृह दरभगां है, बाबूजी विराट नगर में नौकरी पर थे और नानीगृह काठमाण्डू होने से रेलगाड़ी और बस से काफी यात्राएं करनी पड़ती थी। दरभंगा से विराटनगर की यात्रा के बीच ट्रेन भी बदलनी पड़ती। स्टेशन पहुंचते ही यात्रियों के बीच सूचनाओं का आदान प्रदान शुरु हो जाता। "आगे वाले या पीछे वाले कुछ डब्बे रास्ते में कट कर कहीं और चले जाएगे" या "आगे वाले डब्बे में भीड़ कम होगी"। यह तब का सर्व सुलभ गूगल हुआ करता था। अक्सर लोग अपनी चिन्ताओं और शंकाओं का समाधान इन सूचनाओं के बल पर कर लेते। सामान भी उसी जगह रखवाया जाता जिस जगह इच्छित डब्बे के आने की संभावना होती। पर लाख चाहने पर भी ऐसा   इच्छित डब्बा या तो आगे जा कर रुकता या पीछे ही रह जाता।

मीटर गेज या छोटी लाईन की पैसेंजर ट्रेनों में तब खिड़की में रॉड नहीं हुआ करता था।भीड़ इतनी की हम बच्चे सहम जाते। हमें याद नहीं कि हमने बचपन में कभी दरवाजे से डब्बे में प्रवेश किया हो। गाड़ी के प्लेटफार्म में प्रवेश करते ही यात्री या उन्हें छोड़ने आए लोग हाथ में गमछा लिए दौड़ पड़ते और खिड़की से ही उतरने वाले यात्री के सीट पर गमछा, रुमाल आदि रख दिया जाता। कभी कभी गमछा सही जगह रखने के लिए अंदर बैठे यत्रियों की मदद भी ली जाती। जैसे ही गाड़ी रुकती एक एक कर बच्चों को खिड़की से अन्दर ट्रान्सफर कर दिया जाता । कुछ सामान भी खिड़की के रास्ते अंदर आ जाता और फिर बड़े लोग  माँ, बाबूजी भीड़ के बीच जगह बनाते हुए अंदर पहुँचते। सामान भी कम नहीं होता । टीन का बक्सा और होल्डाल तो अत्यावश्यक चीज़ होती थी। साथ में थैला वैगेरह भी होता। पानी का लोटा, गिलास, खाने पीने का सामानों से भरा बाँस या बेंत की बनी टोकरी भी होती। अंदर सीट पर विराजमान यात्रियों के लिए नए आये यात्री तो घुसपैठिये होते। कुछ तू-तू मैं-मैं भी होती पर १५-२० मिनट में भाईचारा स्थापित हो जाता। नए यात्रियों के टिकने भर की जगह निकल आती। बच्चों के बैठने की व्यवस्था भी हो जाती। एक दूसरे से नाम पता कहाँ जाना है वैगरह पूछा जाता और कभी-कभार जान पहचान भी निकल आती।

दरभंगा रेलवे स्टेशन
स्टेशन पर गाड़ी रुकने के पहले ही चापाकल देख लिया जाता। गाड़ी रुकते ही लोटा लिए शीतल जल के लिए लोग  नजदीक वाले या जहाँ भीड़ कम हो उस नल की ओर दौड़ जाते।   कभी कभी पहुंचने पर पता चलता की भीड़ जिस नल पर कम है वहाँ पानी भी कम आ रहा है । मर्फी'ज लॉ हर जगह लागु होता ही है। बाबूजी के पास एक फौजी फेल्ट का कवर लगा एक टम्बलर था जिसमें पानी काफी समय तक ठंडा रहता। उन्हीं यात्राओं के दौरान एक बार चापाकल को डब्बे के बिलकुल सामने देख माँ ने हमारी 'बूढ़ीमाई' (मेरे पहले के ब्लॉग देखे) को पानी लाने का आदेश दिया। 'बूढ़ीमाई'  हम लोग के साथ ही यात्रा कर रही थी। ट्रेन वहाँ काफी देर रुकती थी। बूढ़ीमाई नीचे उतरी और अभी पानी भर ही रही थी की ट्रेन चल पड़ी। जब तक दौड़ी, गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली। असल में ट्रेन के कुछ डिब्बे वहाँ कटते थे जिसके लिए ट्रेन को यार्ड में जाना था।
गाड़ी ने गति पकड़ ली तो बाबूजी भी उतर न सके लेकिन उन्हें पता था कि ट्रेन लौट कर उसी प्लेटफार्म पर आएंगी सो वे ज़्यादा चिंतित नहीं थे। पर आधे घंटे बाद जब ट्रेन वापस आई और बाबूजी नीचे उतरे तो चकरा गए, क्योकि चापाकल के पास २०-२५ लोगों की भीड़ इकठ्ठा थी। घबराये बाबूजी वहाँ पहुँचे तो भीड़ के बीच बूढ़ीमाई को देख कर उनकी जान में जान आई । जो भीड़ अब तक बूढ़ीमाई को मुखातिब थी अब बाबूजी को प्रश्नो से बींधने लगी। कैसे मालिक हैं? अजीब लोग हैं इत्यादि। बाबूजी जल्दी पानी का लोटा और बूढ़ीमाई दोनों को लेकर ट्रेन पर सवार हो गए। हुआ यह कि गाड़ी में चढ़ने की चेष्टा में असफल होते ही बूढ़ीमाई पछाड़ खा कर गिर पड़ी और बिलख बिलख कर रोने लगी। लोगों ने समझाने की कोशिश की कि ट्रेन वापस आ जाएगी पर बूढ़ीमाई का क्रंदन कम न हुआ। वह उनके सभी सवाल जैसे  "मालिक का नाम क्या हैं?" " कहाँ जाना है?" " कहाँ से आ रही हो?" का जवाब  नेपाली में दे रही थी "थाहा छैन"  यानी पता नहीं। अजनबी वेशभूषा, अजनबी भाषा लोगों को आकर्षित कर रही थी।  सबका मुफ्त मनोरंजन भी हो रहा था। इस घटना के बाद बूढीमाई को कभी किसी भी काम के लिए ट्रेन से नीचे नहीं भेजा गया और बूढ़ीमाई? वह तो गंतव्य तक ऐसे पालथी मार कर बैठ जाती कि हिलने  का नाम न लेती।नतीजन आठ नौ घंटे की यात्रा में उसके दोनों पैर सूज जाते थे। अनोखी थी हमारी बुढ़ीमाई। माँ का स्नेह और बच्चे की निश्चलता दोनों एक साथ थी उसमें।
बोतल बन्द पानी के बढ़ते उपयोग से नल के पानी पर निर्भरता कम हो गई है। अब विरले ही पीने के पानी के लिए लोटा ग्लास ले कर चलते है। बोतल बन्द पानी आसानी से ले जाया जा सकता है या प्लेटफार्म या ट्रेन के अन्दर खरीदा भी जा सकता है। सीट या बर्थ भी अब पहले ही आरक्षित कर सकते है । और तो और अब तो बिना रॉड वाले डब्बे भी नहीं होते। पर अब नई परेशानियों ने पुरानी की जगह ले ली है।आज बस इतना ही ।

कुछ और अनुभव फिर कभी ।


2 comments:

  1. Such a beautiful web of words, it transported me to an era I have not seen, only heard of. But it felt like I was experiencing it as I read it - as if a movie was playing before my eyes.

    ReplyDelete
  2. हमारे शादी तक बुढ़ी माई सच में बुढ़ी हो चुकी थी। काठमाण्डु में हमारा और बुढ़ी माई का कमरा एक ही बॉलकनी में खुलता था और सुबह शाम मै उन्हें कौतुहल से देखता था। बात तो कभी कुछ हुई नहीं पर उनकी आँखों में जमाई बाबू का लिए आदर सहित स्नेह झलक जाता। मुझे क्या पता था हमेशा कुछ न कुछ बुदबुदाने वाली बुढ़ीमाई का स्नेह वात्सल्य कितना गहरा। था। अमिताभ।

    ReplyDelete