Friday, July 24, 2020

एक अहसास सिहरन भरा ! - सरोज सिन्हा


जीवन में कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनकी हम व्याख्या नहीं कर पाते। कुछ अनुभूति कुछ अनुभव कुछ अहसास ऐसी होती है जिस पर चाह कर भी हम अविश्वास नहीं कर पाते। इस घटना की साक्षी मेरी माँ थी। वो इस घटना का वर्णन इतने रोचक ढ़ंग से करती हम मंत्रमुग्ध सुनते रहते। हम अक्सर उनसे अनुरोध कर इस घटना को बारम्बार सुनते। जब मेरा पोता TV पर डरावनी घटनाओं पर आधारित फिल्म बारबार देखता है तब माँ से ये कहानी सुनने की हम लोगों की ललक का कारण समझ में  आ गई है। 
मै माँ के शब्दों में ही ये कहानी सुनाती हूँ। शायद न्याय कर पाऊँ।
उन दिनों काठमाण्डू खेत और पेड़ों से भरा एक हरा भरा शहर था।मध्य भाग में जो पुराना शहर है वहाँ घनी आबादी और एक दूसरे से सटे हुए घर थे जो अब भी है। पर बाकी आबादी बगीचे और खेत से घिरे तीन या चार मंजिलों वाले मकानों में रहती थी। सामने बगीचा या फुलवारी होती थी जहाँ कुछ फलों के पेड़ और फूलों के पौधों के आलावा मकई और कुछ सब्जी लगे होते पीछे धान के खेत होते थे। इसी तरह के घर में हम किराये पर रहते थे। वह घर तीन मंजिलों का था। बीच वाले तल्ले पर बैठक और दो कमरे थे। सबसे उपर रसोई और भण्डार घर था। सबसे नीचे वाला तल्ला लकड़ी वैगेरह रखने के काम आता था।
उन दिनों बिजली नहीं थी। रात का खाना आठ नौ बजे तक निपट जाता था। रसोई समेट कर जूठे बर्तन दूसरे सिरे पर बने बर्तन माँजने की जगह पर रख दिया जाता । सुबह 4 बजे काम करने वाली आ जाती थी। नौ साढ़े नौ बजे रात तक लालटेन की लौ धीमी कर सब सो जाते।अचानक एक दिन कुछ आवाज से मेरी नींद टूटी।उपर से खरड़ खरड़ बरतन माँजने जैसी आवाज आ रही थी। उन दिनों स्पांज के स्क्रबर तो था नहीं, विम बार वैगेरह भी नहीं थे। पुआल के कुछ रेशे मोड़ कर राख से बर्तन रगड़े चमकाए जाते। बर्तन भी पीतल कांसे के होते थे और कड़ाही लोहे की। मै उठ बैठी। क्या सुबह हो गई? क्या काम वाली कान्छी आ गई? कई सवाल ज़ेहन में उठ खड़े हुए। मुझे लग रहा था जैसे अभी ही आँख लगी हो। उठ कर बाहर आ गई। देखा सारे कमरे बन्द थे। तो कान्छी के लिए दरवाजा किसने खोला? मै दबे पांव हाथ में लालटेन लिए उपर सीढ़ियो से चढ़ी। अंतिम पायदान पर लकड़ी की सीढ़ी चरमराई और उपर से आती आवाजे रूक गई। रसोई घर में सभी कुछ यथावत था। एक तिनका भी इधर से उधर नहीं हुआ था। लालटेन घुमा घुमा कर चारो ओर देखा, कुछ भी असमान्य नहीं नज़र नहीं आ रहा था। पता नहीं नींद में शायद मेरे कान बजे होंगे। मै वापस आ कर सो गई। सुबह यह घटना मै भूल भी गई। किसी से कोई जिक्र भी नहीं किया।
लगभग एक हफ्ते बाद फिर अचानक इसी तरह नींद टूटी। बर्तन की एक दूसरे से टकराने की आवाज आ रही थी।मैने सोचा कोई पानी पीने उपर गया है, तभी बड़ी जोरों की आवाज आई जैसे बर्तनों की टोकरी किसी के हाथ से छूट गई हो और बर्तन  के एक दूसरे से टकरा कर गिरने की झन्नाटेदार की आवाज आई। मै फिर उठी लालटेन लिया और उपर चढ़ने लगी, तब तक सब शान्त हो गया।अगले दिन इसका ज़िक्र मैने अपनी माँ से किया। उनको भी किसी दूसरे दिन यह अनुभव हुआ था। फिर ऐसी घटना अलग अलग दिन घर के अलग अलग सदस्यों के साथ हुई। यानि आवाज सिर्फ एक को ही सुनाई देती।सबको एक साथ नहीं। कुछ दिनों के तनाव और चिन्ता के बाद सब उसके आदी हो गए और अनसुना करने लगे क्योंकि कोई हानि, कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही थी।
एक दूसरी घटना विराटनगर की है। जहाँ हम तीनों भाई बहन मै, बिमल और किशोर और बुढ़ी माई, माँ बीबूजी के साथ दरभंगा से आए थे।
ये घटना भी माँ के शब्दों में ही सुनिए।
विराटनगर आए अभी कुछ ही दिन हुए थे।पड़ोस के एक भाभीजी से जान पहचान हो गई तो गृहस्थी जमाने में कुछ मदद भी मिल जाती थी। मन्दिर जाना था। मन्दिर का पता उन्हीं से पूछा तो वह अगली सुबह साथ चलने को राजी हो गई। अगली सुबह हम दोंनो मन्दिर के लिए निकले, तीनों बच्चों को बुढ़ी माई के जिम्मेवारी पर छोड़ कर। मंदिर ज्यादा दूर नहीं था । छोटा सा मंदिर था। अन्दर दो महिलाएं पूजा कर रही थी और जगह इतनी ही थी कि दो लोंगो से देवी स्थल भर गया था। मै और भाभी जी बाहर खड़े उनके निकलने का इंतजार करने लगे । अचानक किसी ने मेरे दाहिने कंधे पर हाथ रखा। चार उंगलियों का स्पष्ट स्पर्श कंधे पर महसूस हुआ क्योंकि उंगलियाँ बर्फ सी ढ़ण्ठी थी। मैने चौंक कर पीछे देखा पर वहाँ कोई न था। मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी सी भर गई और रोएं खड़े हो गए। तब तक दोनो महिलाएं बाहर आ गई थी और भाभीजी ने मुझे मंदिर के अंदर कर दिया। पूजा करते हुए भी मेरे शरीर में बारबार झुरझुरी हो रही थी और घर पहुंचते पहुंचते बुखार नें जकड़ लिया। भाभीजी को बताया तो उन्होनें फिर मुझे उस मंदिर में जाने से मना किया कि शायद मेरी उपस्थिति "किसी" को बर्दाश्त नहीं हुई है।
विराट नगर का ये घर भी काठमाण्डू के घरों जैसा ही था। लकड़ी की सीढ़ी कमरे के बाहर एक खुले बरामदे से ऊपर जाती थी। उपरी तल पर रसोई घर के आगे छोटा से खुला बरामदा था। नेपाली में कौशी। रसोईघर के दरवाजे से कुछ आगे की ओर निकला हुआ सिमेन्ट किया हुआ था बर्तन आदि धोने के लिए। टाइल किया ढ़लावदार छत रसोईघर के दरवाजे से आगे उस बॉलकनी तक पहुंचते थे लगभग तीन फीट की ऊंचाई तक। छत दाल, बड़ी आदि सुखाने के काम आता था।
बच्चे छत पर बॉल फेंकतें तो वो लुढ़कते हुए बरामदे (कौशी) में गिरते। ये उनका खेल था। रात खाना बनाते समय अक्सर ऐसी आवाजे आती जैसे किसी ने एक मुठ्ठी मटर या चने के दाने छत पर डाले हो जो लुढ़कते हुए झरझर की आवाज से बरामदे में गिर रहे हो और लुढ़कते हुए पूरे बरामदें में फैल गए हों। लेकिन देखने जाओ सब साफ सुधरा बरामदे में एक दाना भी नज़र नहीं आता। दो चार बार की इस घटना से अचम्भित हो ही रही थी कि एक रात खाना बनाते समय किसी के उपर आने की आहट हुई। लकड़ी की सीढ़ी की अंतिम तीन पायदान पर तीन पदचाप और किसीके दरवाजे से आगे बरामदे में जाने की एक झलक नज़र आई। कौन है? आवाज देने पर भी किसी ने जवाब नहीं दिया। शायद बुढ़ी माई कुछ लेने आई होगी। सोच कर मै व्यस्त हो गई। बुढ़ी माई नीचे कमरे में बच्चों को ले कर बैठी थी। अगली रात फिर वही घटना हुई तो मै उठ कर देखने आई वहाँ कोई नहीं था, नीचे उतर कर देखा बुढ़ी माई बच्चों को ले कर व्यस्त थी।
पूछने पर उसने नकार दिया कि वह तो अपनी जगह से उठी भी नहीं है। कुछ डर भी लगा। बच्चों के बाबूजी हर शाम दोस्तों से गप्पे लड़ाने या ताश का महफिल जमाने चले जाते थे। अगली शाम मैने उन्हें न जाने दिया। वे मेरे साथ रसोई घर मे बैठे रहे तब सब कुछ सामान्य था। लगातार दो तीन दिन रसोई में उनके साथ रहने तक सब कुछ सामान्य रहा। फिर वे नीचे बच्चों के साथ बैठने लगे। लगभग आठ दस दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा और मैं भी सब भूल गई। वे भी अपनी ताश पार्टी में जाने लगे पर दो दिनों बाद फिर वही घटना घटने लगी। कभी छत से मटर के दाने लुढ़कते और कभी सफेद कपड़े की छाया झट से दरवाजे से ईधर से उधर होती। फिर मै इनको (बच्चो के बाबूजी को) रोक लेती और सब कुछ सामान्य हो जाता और मैं मज़ाक बन कर रह जाती। तीन चार बार ऐसा ही हुआ। अगली बार जब वही पदचाप और सफेद झलक दिखी तब मुझे डर से ज्यादा गुस्सा आया।चूल्हे से दो दहकती सुलगती लकड़ी दोनों हाथों में लेकर मै बरामदे में बाहर आ गई।दोनों हाथों की मशाल घुमाते हुए चिल्लाई "कौन है सामने आओ। सामना करो जो भी हो तुम, आज मै तुझे जला ही दूगीं।" कुछ देर तक सुलगती लकड़ी घुमाते हुए ईधर उधर घुमती रही। फिर लौट कर खाना बनाने बैठ गई। जोश में ललकार तो दिया, पता नहीं किसे, पर अब मेरा दिल धड़क धड़क कर बाहर आने को हो रहा था पर मै हिम्मत से बैठी अपना काम करती रही । उनके घर आने के बाद उन्हें सब बताया तो वो भी कुछ विचलित हो गए। कुछ दिनों तक उनका संध्या कार्यक्रम स्थगित रहा फिर सब कुछ सामान्य चलने लगा। फिर उसके बाद "उससे" साबका नहीं पड़ा। अब न वो आवाज आती मटर लुढकने की,न ही अनचाही उपस्थिति का कोई आभास हुआ। शायद मन का डर ही सबसे बड़ा डर होता है जिस पर "डर" हावी हो जाता है।

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर चित्रण। अविश्वसनीय पर भी विश्वास करने को बाध्य करने वाली कहानी। चित्रों ने इसे ज्यादा जीवंत बना डाला है।

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  2. Wow! Really felt goosebumps!! Stories worth writing a novel on.

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